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जिस प्रकार रूपादि घट में ही उपलब्ध होते हैं, उसी प्रकार आत्मा शरीर में ही उपलब्ध होती है ।१७५ तथा शरीर के संपूर्ण प्रदेशों में व्याप्त रहती है।
आत्मा को सर्वगत मानने से वह सर्वज्ञ हो जायेगी, फिर अपने सुख-दुःख का संवेदन कैसे करेगी, क्योंकि आत्मा को सुख दुःख होते हैं । १७६ __ केवलीसमुद्घात के अतिरिक्त एक और कारण से भी आत्मा व्यापक हैवह है उसका ज्ञान गुण । ज्ञान समस्त पदार्थों को जानने से सर्वगत और व्यापक है। इस अपेक्षा से भी आत्मा सर्वव्यापक है । ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। उसे
और आत्मा को अलग नहीं किया जा सकता। इसी दृष्टि से ज्ञानियों ने द्रव्य (आत्मा) को विश्वरूप भी कहा है ।१७८
ज्ञानी (आत्मा) को ज्ञान से भिन्न माने पर दोनों के अचेतन होने की आपत्ति आ पड़ेगी।१७९ दूसरे, ज्ञान को और ज्ञानी को भिन्न मानने मे हमें अपना ही ज्ञान नहीं होगा।१८० - आत्मप्रदेशों की अपेक्षा समस्त लोकाकाशप्रमाण होने पर भी संसारी जीव को कर्मानुसार जिस प्रकार का शरीर प्राप्त होता है, वह उसी शरीर के अनुसार अपने प्रदेशों में संकोच विस्तार कर लेता है। शरीर का कोई अंश ऐसा नहीं होता, जहाँ आत्मप्रदेशों का अभाव रहे। उसमें यह स्वाभाविक शक्ति है कि वह शरीर को व्याप्त कर ले ।१८१ केवलीसमुद्धात के समय वह लोक में व्याप्त होता है, जीव के मध्य के आठ प्रदेश मेरु पर्वत के नीचे चित्रा पृथ्वी के वज्रमय पटल के मध्य में स्थित हो जाते हैं और शेष प्रदेश ऊपर, नीचे और तिरछे समस्त लोक को व्याप लेते हैं। १८२
१७५. अन्ययो व्य. ९ १७६: कार्तिकेयानुप्रेक्षा १७७ १७७. प्रवचनसार २३-२८ १७८. पं. का ४३. १७९. पंचास्तिकाय ४८ १८०. स्याद्वादमं पृ. ६७ १८१. स. सि. ५.८. ५४१ १८२. वही
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