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________________ अमृतचन्द्राचार्य ने प्रवचनसार की टीका में 'अमूर्त आत्मा का संकोच विस्तार कैसे संभव है' - यह प्रश्न उठाकर स्वयं समाधान कर दिया कि “यह तो अनुभवगम्य है, जैसे जीव स्थूल तथा कृश शरीर में बालक तथा कुमार के शरीर में व्याप्त होता है।" निश्चयदृष्टि से सहजशुद्ध लोकाकाश प्रमाण असंख्यप्रदेशी जीव होने पर भी व्यवहार से अनादिबंध के कारण पराधीन शरीर नामकर्म उदय के कारण संकोच विस्तार युक्त होकर घटादि पात्र में दीपक की तरह स्वदेह प्रमाण है । १८४. नित्यता तथा परिमाणी अनित्यता (परिणामीनित्यात्मवाद) :___आचारांग सूत्र का प्रारंभ ही इस सूत्र से हुआ है कि आत्मा परिणमनशील है। जैसे कुछ मनुष्यों को यह संज्ञा नहीं होती कि “मैं पूर्व दिशा से आया हूँ 'पश्चिम दिशा से आया हूँ' उत्तर, ऊर्ध्व, अधः, या किसी अन्य दिशा से आया हूँ या अनुदिशा से आया हूँ।"१८५ इसी प्रकार नित्य परिणमनशील आत्मा को अपने परिणमन का अनुभव नहीं होता। ___इस अनुसंचरण का इतना महत्त्व बताया कि इसे 'आत्मवादी' का लक्षण तक बता दिया।१८६ पर्याय की दृष्टि से आत्मा अनित्य है, परन्तु द्रव्य की अपेक्षा नित्य है । जैसे संसारी पर्याय की दृष्टि से नष्ट, मुक्त के रूप में उत्पन्न और द्रव्यत्व की दृष्टि से अवस्थित है ।१८७ जैन दर्शन ध्रौव्य के प्रतिक्षण परिमणन स्वरूपी होने से आत्मा को परिणामी नित्य मानता है । इसके विपरीत सांख्य आत्मा (पुरुष) को सर्वथा अपरिणामी मानता है ।१८८ मनुष्यत्व से नष्ट हुआ जीव देवत्व को उपलब्ध होता है, पर इसमें जीवन उत्पन्न होता है, न नष्ट ।१८९ पर्याय परिणमन रूप क्रिया से आत्मा अनित्य और १८३. प्र.सा.ता.वृ. १३७ १८४. बृ.द्र.सं.टी. २.९.१० १८५. आचारांग सूत्र १.१.१ १८६. वही १.१.५ १८७. गणधरवाद १८४३ १८८. सांख्यकारिका १७ १८९. पं. का १७ ९८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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