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________________ प्रख्यात दार्शनिक श्री कुंदकुंदाचार्य ने प्रवचन सार में "उत्पाद के अभाव में व्यय नहीं होता और व्यय के अभाव में उत्पाद नहीं होता है। उत्पाद और व्यय, दोनों ही ध्रौव्य के ही आश्रित हैं।” कहकर भिन्नता और अभिन्नता स्वीकार करते हुए उनमें अविरोधित्व स्वीकार किया है । " आगे इसी को और स्पष्ट करते हुए कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं- “उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पर्यायों में और पर्यायें नियम से द्रव्याश्रित होती हैं । " ११९१ • द्रव्य स्वयं ही गुणान्तर रूप से परिणमित होता है। द्रव्य की सता गुणपर्यायों की सत्ता के साथ अभिन्न है, अतः गुणपर्याय ही द्रव्य है ।" टीकाकार अमृतचंद्राचार्य ने इसे वृक्ष के उदाहरण द्वारा और अधिक स्पष्ट किया है। “जिस प्रकार अंशी वृक्ष के बीज, अंकुर, वृक्षत्व स्वरूप तीनों अंश एक साथ दिखायी देते हैं, वैसे ही द्रव्य के व्यय, उत्पाद और ध्रौव्य स्वरूप निजधर्मों के द्वारा अवलम्बित एक साथ ही प्रतीत होते हैं। अगर द्रव्य को उत्पाद व्यय और ध्रौव्य रूप से भिन्न माना जाये तो सर्वत्र विप्लव हो जायेगा । यदि द्रव्य का व्यय ही मानें तो सारा संसार शून्य हो जायेगा, यदि द्रव्य का उत्पाद ही माने तो द्रव्य में अनन्तता आ जायेगी, और यदि द्रव्य को ध्रौव्य ही माने तो भावों का अभाव होने से क्रमशः द्रव्य का अभाव हो जायेगा । १३ हैं वे नहीं है और द्रव्य हैं वे गुण नहीं हैं । १४ अतः द्रव्य और गुण भिन्न हैं। उत्पाद - व्यय रूप भेद पदार्थों का धर्म हैं, वह धर्म पदार्थों से कथंचित् भिन्न है कथंचित् अभिन्न है । धर्म और धर्मी में सर्वथा भेद या सर्वथा अभेद नहीं पाया जाता । I ९५ एक ही व्यक्ति में संबन्धों की भिन्नता पायी जाती है, जैसे एक ही व्यक्ति पिता, पुत्र, भांजा, और भाई आदि संबन्धों से ज्ञपित होता है किन्तु इन संबन्धों ९०. ण भवदि भंगविहीणो.....धोव्वेण अल्पेण- प्र. सा. १००. ९१. उप्पादठ्ठिदिभंगा - दव्वं हवदि सव्वं प्र.सा. १०१. ९२. परिणमदि सयं दव्वं..... दव्वमेवत्ति - प्र. सा. १०.४ एव. गुणपर्यय वत् द्रव्यम् - त.सू. ५.३७ ९३. यथा किलंशिनः पादपस्य बीजजाङ्कुरपादपत्व..... द्रव्यस्याभावः - प्र. सा.त. प्र. पृ. १०१. ९४. यद्दव्यं भवति न तद्गुणा भवन्ति न द्रव्यं भवतीति - प्र. सा.त. प्र. पृ. १३०. ९५. भेदो हि पदार्थानां धर्म..... भिन्नभिन्नश्च - स्याद्वादरत्ना. १.१६.२०३ Jain Education International ४० For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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