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________________ व्यवस्था को स्थिर रखते हैं तो मात्र आकाश के कारण। परमाणु परस्पर संयुक्त होते हैं, परन्तु निरन्तर नहीं। वह जो परमाणुओं को परस्पर संयुक्त किये रहता है, आकाश है, परन्तु यह आकाश परमाणुओं द्वारा निर्मित नहीं है। आकाश नित्य है, सर्वत्र उपस्थित है, इन्द्रियातीत है, जोड़ने तथा पृथक् करने का व्यक्तिगत गुण रखता है।३८ ... पाँचो तत्त्वों का मिश्रण ही प्रकृति है जो हमारे सामने आती हैं। इनमें आकाश भी एक तत्त्व है, जिसका विशेष गुण एकमात्र शब्द है। शब्द गुण का आश्रय दूसरा कोई द्रव्य नहीं है। शब्द आकाश का अनुमापक भी है। आकाश विभु जैनदर्शन भी आकाश को सर्वगत, नित्य, व्यापक, रूप, रस, गंध और स्पर्श रहित मानता है, परन्तु शब्द को पुद्गल मानता है न कि आकाश का गुण । आज विज्ञान ने रेडियो, टी.वी. आदि द्वारा शब्द तरंगों को पकड़कर स्थानान्तरित करके यह सिद्ध भी कर दिया है। सांख्य क अनुसार आकाश : सांख्य दर्शन प्रकृति के विकार मात्र को आकाश कहता है। प्रकृति से बुद्धि, बुद्धि से अहंकार तथा अहंकार से सोलह तत्त्व-पाँच द्रव्येन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, मन, रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द पैदा होते हैं। रूप, रस, गंध, स्पर्श तथा शब्द इन्हें तन्मात्राएँ भी कहते हैं। इन पाँच तन्मात्राओं में से शब्द से आकाश की उत्पत्ति होती है। पाँच तन्मात्राओं के अनुरूप पाँच इन्द्रियों के प्रत्यक्ष के विषय हैं। ये भौतिक तत्त्व रूप हैं, परन्तु साधारण प्राणियों के दृष्टि का विषय नहीं बनती। इन अदृश्य ३८. भारतीय दर्शन भाग २ डॉ. राधाकृष्णन् पृ. १९२ ३९. न्यायसूत्र ३.१.६०.६१ ४०. भारतीय दर्शन : डॉ. एन. के. देवराज प. ३२६ ४१. षड्दर्शनसमुच्चय का. ३७.३९ ४२. “स्वरान्नभः" -षड्दर्शनसमुच्चय का. ४० एवं शब्द तन्मात्रादाकाश सा. कात्ति मात. पृ.३७ ४३. भारतीय दर्शन, भाग २ डॉ. राधाकृष्णन् पृ. ३६९ १८८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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