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________________ वस्तुतः दिशा का कोई स्वतन्त्र अस्तित्त्व या स्वतन्त्र संख्या नहीं है। उपर्युक्त भेद व्यवहार में प्रचलित होने से दस है। गणितीय व्यवहार में ३६० अंशों में विभाजित परिधि को भी दिशा नाम से कहा जा सकता है । यह विभाग भी स्थूल ही है, क्योंकि गणित में एक-एक अंश के भी दस-दस विभाग किये गये हैं। ये दस-दस विभाग भी गणितीय व्यवहार पर आधारित हैं; वास्तव में इनकी गणना नहीं की जा सकती। इतर दर्शनों के अनुसार आकाश :- . जैन दर्शन की मान्यतानुसार आकाश का विवेचन करने के पश्चात् अन्य भारतीय दर्शनों ने आकाश को किस प्रकार से विश्लेषित किया है, यह जानने का प्रयास किया जा रहा है। न्याय वैशेषिक और आकाशः' वैशेषिक दर्शन में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, देश, आत्मा और मन को द्रव्य माना गया है। इन द्रव्यों के अन्तर्गत आकाश को भी स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में मान्यता दी गयी है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार इनके अन्दर शरीरधारी और अशरीरी वस्तुओं का समावेश हो जाता है।३ . आकाश सर्वव्यापक बृहत्तम विस्तार युक्त है। आकाश सर्वव्यापक होते हुए भी शब्द का उत्पादक है।३५ - आकाश एक सकाम, निरन्तर, स्थायी, तथा अनन्त द्रव्य है। यह शब्द का अधिष्ठान है। यह रंग, गंध और स्पर्श से रहित है। अपनयन की प्रक्रिया द्वारा यह सिद्ध किया जाता है कि शब्द आकाश का विशिष्ट गुण है। यह निष्क्रिय है। समस्त भौतिक द्रव्य इसके साथ संयुक्त माने जाते है। परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म हैं। परमाणु एक दूसरे के पास आकर या संयुक्त होकर किसी बड़े पदार्थ का निर्माण नहीं करते । वे एक दूसरे से अलग रहते हैं फिरभी किसी प्रकार से मिलकर एक ३३. भारतीय दर्शन भाग २ डॉ. राधाकृष्णन् पृ. १८७ ३४. प्रशस्तपादकृत पदार्थ धर्म संग्रह पृ. २२ ३५. तर्कदीपिका पृ. १४ ३६. वैशेषिक दर्शन २.१.२७.२९.३१ ३७. न्यायसूत्र ४.२.२१.२२ १८७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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