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अनुदिशा और दिशा की उत्पत्ति तिर्यग्लोक से होती है। दिशा का प्रारम्भ आकाश के दो प्रदेशों से शुरु होता है। उनमें दो-प्रदेशों की वृद्धि होते-होते वे असंख्य प्रदेशात्मक बन जाती हैं । अनुदिशा केवल एक देशात्मक होती हैं । ऊर्ध्व और अधोदिशा का प्रारम्भ चार प्रदेशों से होता है। बाद में उनमें वृद्धि नहीं होती।
आचारांग का प्रारम्भ ही दिशा की विवेचना के साथ हुआ है। आचारांग में पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व और अधः दिशाओं का नामोल्लेख प्राप्त होता है।२८
जिस व्यक्ति के जिस ओर सूर्योदय होता है, वह उसके लिये पूर्व 'जिस तरफ अस्त होता है; वह पश्चिम दिशा है । दाहिने हाथ की ओर दक्षिण बाईं ओर उत्तर दिशा होती है। इन्हें ताप दिशा कहा जाता है।
निमित्त कथन आदि प्रयोजन के लिये दिशा का एक प्रकार और होता है। प्रज्ञापक जिस ओर मुँह किये होता है उसे पूर्व, उसके पृष्ठ भाग में पश्चिम दोनों ओर दक्षिण तथा उत्तर दिशा होती हैं, इन्हें प्रज्ञापक दिशा कहते हैं।"
जैनदर्शन के अनुसार 'दिशा' स्वतन्त्र द्रव्य आकाश का एक काल्पनिक विभाग है।
ठाणांग में दिशाएं छह बतायी गयी हैं एवं एक अपेक्षा से दिशाएं दस भी बतायी गयी हैं-पूर्व, पूर्व-दक्षिण, दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम, पश्चिम, पश्चिमउत्तर, उत्तर, उत्तर-पूर्व, ऊर्ध्व, अधस् ।३२
दो दिशाओं के मध्य कोने में होने से विदिशा दो दिशाओं के संयुक्त नाम से भी पुकारी जाती हैं।
२७. आचारांग नियुक्ति ४२.४४ २८. आचारांग १.१.१ २९. आचारांग नियुक्ति ४७.४८ ३०. आचारांग नियुक्ति ५१ ३१. ठाणांग ६.३७ ३२. ठाणांग १०.३१
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