SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निश्चयकाल:- निश्चयकाल पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श से रहित, अगुरुलघु, अमूर्त और वर्तना लक्षण वाला है। जो निश्चय काल है, वही परिणमन करने में कारण होता है। __परिवर्तन रूप कोई भी कार्य बिना कारण हो नहीं सकता। इसलिए कोई न कोई सत्ताभूत पदार्थ इसका कारण होना चाहिये, यह सत्ताभूत पदार्थ ही निश्यचकाल है। व्यवहार और निश्चयकाल में अंतर:- मुख्य काल के अस्तित्व की सूचना देने के लिये स्थिति से पृथक् काल का ग्रहण किया गया है। व्यवहारकाल पर्याय और पर्यायों की अवधि का परिच्छेद करता है। व्यवहारकाल जीव और पुद्गल के परिणमन का आधार होता है और निश्चयकाल अणुरूप और इन्द्रियानुभवातीत कालचक्र की अवधारणा :. जैनदर्शन में कालचक्र की अवधारणा दो भागों में विभक्त करके की गयी है। एक नीचे से ऊपर अर्थात् दुःख से सुख की ओर जाने वाला और दूसरा ऊपर से नीचे आने वाला अर्थात् सुख से दुःख की ओर आने वाला । जैसे गाड़ी का पहिया घूमता है अर्थात् पहिये का नीचे वाला भाग ऊपर आता है और पुनः नीचे जहाँ से चला था वहाँ पहुँच जाता है, इसी प्रकार काल का पहिया भी बराबर घूमता रहता है । सुख से दुःख की दिशा में जाने वाला अवसर्पिणी और दुःख से सुख की दिशा में जाने वाला भाग उत्सर्पिणी काल कहलाता है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी ये दोनों चक्रार्द्ध मिलकर पूरा एक कालचक्र बनाते हैं। इसे युग भी कहते हैं। __उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी- दोनों ही चक्राों को छह भागों में विभक्त करके पूरे कालचक्र को १२ विभागों में विभाजित किया गया है। उत्सर्पिणी काल क्रमशः ऊपर की ओर बढ़ता है, अतः दुखमा-दुखमा, दुखमा, दुखमा ५. पंचास्तिकाय २४ ६. न.च.वृत्ति १३५ ७. त.रा.वा. १.८.२०.४३ ८. ठाणांग २.७४ २०६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy