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जब तक पुण्य और पाप को न समझा जाये तब तक क्या छोड़ा जाये और क्या ग्रहण किया जाये- इस समस्या का समाधान करने के लिए आस्रव और बन्ध के प्रकार पुण्य और पाप को स्वतन्त्र विषय बनाकर भी वर्णन किया गया है। इस प्रकार इनका विस्तार करने पर जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष-ये नौ तत्व होते हैं। ११ जीव का विवेचन हम आगे के पृष्ठों में कर आये हैं।
अजीव दो प्रकार का है- मूर्त और अमूर्त । जिसमें वर्ण, बन्ध, गन्ध, रस, स्पर्श हो उसे रूपी या मूर्त कहते हैं और जिसमें ये चारोंन हों वे अमूर्त हैं । १२ इसका विस्तृत विवेचन अगले अध्याय में करेंगे। पुण्य-पापः____ ठाणांग में नौ प्रकार से पुण्य बताया गया है। अन्न देने से, पानी देने से, वस्त्रदान से, लयनदान से, शयनसाधन देने से, मन, वचन, काय की शुभ प्रवृति से एवं नमस्कार से पुण्य होता है । १३ - षड्दर्शन समुच्चय में हरिभद्रसूरि ने पुण्य की परिभाषा दी- “सत्कर्मों द्वारा लाये गये कर्म पुगलों को पुण्य कहते हैं।" ४१४ ठाणांग में पाप के स्थान भी नौ बताये हैं- प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ । ४१५
महावीर स्वामी के गणधर अचलभ्राता का तो संदेह ही पुण्य, पाप के अस्तित्त्व और उसके स्वरूप से संबन्धित था। उनके मन में पुण्य पाप से संबंधित पाँच प्रश्न थे। १. मात्र पुण्य ही है। पाप के अस्तित्त्व की कोई आवश्यकता नहीं है। पुण्य बढ़ता है, सुख बढ़ता है, पुण्य घटता है, सुख घटता है । फिर पाप के स्वतन्त्र अस्तित्त्व
की क्या आवश्यकता है।४१६ ४११. नवतत्त्व १ ४१२. उत्तराध्ययन ३६.४ ४१३. ठाणांग ९.२५ ४१४. षड्दर्शनसमुच्चय ४९ ४१५. ठाणांग ९.२६ ४१६. गणधारवाद १९०८.९
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