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________________ शरीरक्षेत्र में रहते हुए भी इसमें आत्मप्रदेशों का शरीर से सम्बन्ध नहीं रह जाता। इसका काल पाँच ह्रस्व वर्ण अ, इ, उ, ऋ और लृ के उच्चारण में लगने वाले समय के बराबर है । शास्त्रीय भाषा में इसका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त्त भी कहा जाता है । इस गुणस्थान में उपान्त्य और अन्त समय में शेष बची हुई १२ और १३ प्रकृतियों Short हो जाता है । इन प्रकृतियों का क्षय हो जाने के बाद जीव 'सिद्ध भगवान्' संज्ञा पाता है और एक समय में लोकान्त पहुँच जाता है । जीव की परिपूर्णता और उत्कृष्टता इसी गुणस्थान में प्राप्त होती है । इन गुणस्थानों के विवेचन से स्पष्ट है कि आत्मा उत्तरोत्तर विकास करती हुई. अंत में संपूर्ण कर्म क्षय करके अपने शुद्धरूप को उपलब्ध करती है । मोह और योग के कारण जीव के अन्तरंग परिणामों में प्रतिक्षण होने वाले उतार-चढ़ाव को गुणस्थान कहते हैं । इसे ओघ और संक्षेप भी कहते हैं । ४०९ पुण्य-पाप और जीव : मुख्य तत्त्व तो इस संसार में दो ही हैं- जीव और अजीव । ४१० जीव का प्रयोजन संसार के दुःखों से छूट कर मुक्ति प्राप्त करना है। इस प्रयोजन की पूर्ति संसार के कारण और उनका निवारण समझे बिना नहीं होती। इसलिए जैनदर्शन ने जीव और अजीव- इन दो पदार्थों का विस्तार मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत सात तत्त्वों में किया है - जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, और मोक्ष । परन्तु ऐसा भी नहीं है कि मात्र इनको समझते ही मुक्ति प्राप्त हो सके; ऐसे बहुत कम जीव हैं जो निगोद (ऐकेन्द्रिय पर्याय) से सीधे ही मनुष्यत्व को प्राप्त कर उसी जन्म में मोक्ष प्राप्त कर सकें। मोक्ष की प्रक्रिया में आचरण ( चारित्र) का महत्त्व है। जैन दर्शन के अनुसार सम्यक्चारित्र की उत्कृष्ट अवस्था अनेक सोपानों में प्राप्त होती है । इस प्रक्रिया में, जब तक पूर्णता न हो, सांसारिक सुख और दुःख के कारणभूत कर्मों का आस्रव और बन्ध होता ही रहता है । यद्यपि पुण्य और पाप, दोनों प्रकार के कर्म संसार के कारण हैं, और इनका नाश ही जीव का लक्ष्य होना चाहिए, परन्तु फिर भी जब तक उच्छेद न हो तब तक पुण्य कर्मों का आस्रव और बन्ध ही उपादेय है । ४०९. संखेओ ओद्यो त्ति य गुणसण्णा.. सकम्मभवा- - गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ) ३ ४१०. उत्तराध्ययन ३६ Jain Education International १३८ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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