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________________ (९) अनिवृत्तिकरण गुणस्थान :- इस गुणस्थान में विशुद्ध परिणामों का भेद समाप्त हो जाता है । अन्तर्मुहूर्त मात्र अनिवृत्ति के काल में से किसी एक समय में रहने वाले अनेक जीवों में शरीर के आकार, वर्ण आदि की अपेक्षा भेद होता है। जिन विशुद्ध परिणामों द्वारा उनमें भेद नहीं होता, वे अनिवृत्तिकरण परिणाम कहलाते हैं। इसमें विशुद्ध परिणाम एक जैसे ही पाये जाते हैं तथा ये परिणाम ध्यान रूपी अग्नि से कर्मकाष्ठ जलाने में समर्थ होते हैं । ४०३ ।। (१०) सूक्ष्मसंपराय :- इस गुणस्थान में अत्यन्त सूक्ष्म लोभ कषाय का उदय रहता है। रंग से रंगे वस्त्र की ललिमा धोने पर जैसे फीकी हो जाती है, वैसे ही इस गुणस्थान में राग अत्यन्त अल्प होता है। मात्र सूक्ष्म लोभ होने के कारण यथाख्यात चारित्र उदय में नहीं आता।०४ . (११) उपशांतकषाय :- निर्मल फल से युक्त जल की तरह अथवा शरदऋतु में होने वाले सरोवर के जल की तरह संपूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम से उत्पन्न होने वाले निर्मल परिणामों को उपशांत कषाय गुणस्थान कहते हैं।०५ (१२) क्षीणमोह :- मोहनीय कर्म के क्षीण होने से जिस निर्ग्रन्थ का हृदय स्फटिक के निर्मल पात्र में रखेगयेजल के समान निर्मल हो जाता हैं, उसे क्षीणमोह कषाय गुणस्थान कहते हैं।०६ । (१३) सयोगकेवली :- केवलज्ञान रूपी प्रकाश से जिसके अज्ञान का अन्धकार समाप्त हो गया है, जिसे परमात्मा की संज्ञा प्राप्त हो चुकी है, इन्द्रियों के सहयोग की अपेक्षा न रखने वाले काययुक्त को सयोगकेवली कहते हैं । ४०० (१४) अयोगकेवली :- जिसके कर्मों का आस्रव (आगमन) सर्वथा रुक गया है, कर्मरुपी रज की पूर्णतया निर्जरा कर चुके योगरहित (मन वचन और काय-इन तीन योगों से रहित) जीव को अयोगीकेवली गुणस्थान होता है।०८. ४०३. वही ५६.५७ ४०४. वही ५८.६० ४०५. वही गा. ६१ ४०६. वही गा. ६२ एवं त. वा. ९.१.२२.५९० ४०७. गोम्मटसार जीवकाण्ड ६४ ४०८. वही ६५ १३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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