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है, परन्तु प्रवृत्ति नहीं कर सकता । ३९४
(५) देशविरत गुणस्थान :- इस गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होने के कारण पूर्व संयम नहीं हो पाता, परन्तु अप्रत्याख्यानावरण कषाय न होने से देशविरत (आंशिक व्रत) ले सकता है । २९५
इसे विरताविरत या संयमासंयम भी कहते हैं । १६ इस गुणस्थान में त्रसहिंसा से विरत, परन्तु उसी स्थावरहिंसा से अविरत होता है, इसीलिए उसे विरताविरत कहते हैं । ३९७ इसमें क्षायोपशमिक भाव होता है ।
(६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान :प्रत्याख्यानावरण कषाय का उपशम होने से. पूर्ण संयम तो हो चुका होता है, परन्तु उस संयम के साथ संज्वलन चतुष्क और नोकषाय के उदय से संयम में बाधा उत्पन्न करने वाला प्रमाद भी होता है, इसे प्रमत्तसंयत गुणस्थान कहते हैं । यद्यपि इस गुणस्थान में जीव मूलगुण और शील से युक्त होता है, परन्तु व्यक्त और अव्यक्त दोनों प्रकार के प्रमादों को करने से वह संयम में भी संपूर्ण संयममय नहीं बनता । ३९८
(७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान :- जब संज्वलन और कषाय मन्द हो जाते हैं, सकल संयम से युम्त मुनि के प्रमाद का अभाव हो जाता है। इसलिए इस गुणस्थान को अप्रमत्तसंयत कहते हैं । ३९९ इसके भेद और उपभेद की गोम्मटसार में विस्तृत चर्चा है । ४००
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(८) अपूर्वकरण गुणस्थान प्रथम कभी न उत्पन्न परिणाम की उत्पत्ति इस गुणस्थान में होती है । इस गुणस्थान में भिन्नसमयवर्ती जीवों के विशुद्ध परिणाम विसदृश ही होते हैं, परन्तु एकसमयवर्ती जीवों के परिणामों में सादृश्य और वैसादृश्य दोनों होते हैं । ४०१ इसका काल मात्र अन्तर्मुहूर्त होता है । ४०२
३९४. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) २९
३९५. वही ३०
३९६. त. वा. २.५.८
३९७. गोम्मटसार (जीवकाण्ड ) ३१
३९८. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) गा. ३२.३३
३९९. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) ४५
४००. वही गा. ४९
४०९. वही ५१.५२ ४०२ . वही ५२
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