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________________ २. यह भी हो सकता है कि पाप का ही अस्तित्त्व माना जाये; पाप घटा सुख मिला, पाप बढ़ा, दुःख बढा। १७ ३. या पाप और पुण्य, इन दोनों का संयुक्त अस्तित्त्व है । १८ ४. चौथा मत यह है कि पुण्य और पाप, दोनों स्वतन्त्र हैं। ५. पाँचवा मत यह है कि पुण्य-पाप कुछ भी नहीं हैं। - इन सभी प्रश्नों को महावीर स्वामी ने अनुभव एवं तर्क से समाहित कियादेहादिका जो कारण है वह कर्म है। १९ कर्म दो प्रकार के हैं, पुण्य और पाप । शुभ कार्यादि से पुण्य का और अशुभ कार्यादि से पाप का अस्तित्त्व सिद्ध होता है । २० पुण्य और पाप स्वतन्त्र हैं । सुख के अनुभव का कारण पुण्य एवं दुःख के अनुभव।४२१ सुख के अत्यन्त उत्कर्ष का कारण पुण्य को और दुःख के अत्यन्त उत्कर्ष का कारण पाप को मानना होगा। पाप को पुण्य से सर्वथा पृथक् नहीं किया जा सकता। अतः पुण्य और पाप दोनों मानने चाहिये ।२२ जिस प्रकार दुःख के लिए पाप की कल्पना अनिवार्य है, उसी प्रकार सुख के लिए पुण्य की कल्पना भी अनिवार्य है। चाहे जहर कम हो या ज्यादा, वह हानि पहुँचा ही सकता है, उससे अमृत की कल्पना संभव नहीं। पाप तो दुःख का ही कारण बनता है।४२३ . जैसे एक समय में एक ही ध्यान होता है उसी प्रकार एक समय में कर्मोदय एक ही प्रकार का होता है, अतः इन्हें स्वतन्त्र ही मानेंगे।२४ पुण्य और पाप दोनों ४१७. गणधरवाद १९१०४ ४१८. गणधरवाद १९११४ ४१९. गणधरवाद १९१९ ४२०. गणधरवाद १९२० ४२१. गणधरवाद १९२१ ४२२. गणधरवाद १९३० ४२३. गणधरवाद १९३३ ४२४. गणधरवाद १९३७ - १४० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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