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________________ पुद्गल हैं, पर न अत्यन्त स्थूल हैं न अत्यन्त सूक्ष्म । २५ आचार्य कुन्दकुन्द ने पुण्य और पाप दोनों को जीव का बन्धन बताते हुए एक को सोने की बेड़ी तथा एक को लोहे की बेड़ी कहा है। इतना ही नहीं, परन्तु उन्होंने तो यह भी कहा कि जीव को इन दोनों का त्याग करना चाहिये। इन दोनों के योग से जीव कर्म का बन्ध करता है, और इनसे विरक्त आत्मा कर्ममुक्त बनती है। - भगवती सूत्र में पाप और पुण्य के संबन्ध में जिज्ञासा के समाधान में महावीर द्वारा किया गया विस्तृत विवेचन उपलब्ध है- “जिस प्रकार से सर्वथा सुंदर, सुसजित थाली में, अठारह प्रकार का भोजन हो, परन्तु वह विषमिश्रित हो तो भोजन करने में आनन्द तो आयेगा पर उसका परिणाम अशुभ होगा। उसी प्रकार पापों का सेवन तो अच्छा लगता है पर उसका परिणाम खतरनाक होता है।४२६ . पुण्यबन्ध का उदाहरण इस प्रकार दिया गया है--एक व्यक्ति औषधिमिश्रित भोजन करता है, यद्यपि स्वाद उसे रुचिकर नहीं लगेगा, परन्तु उसका परिणाम अच्छा होगा।२७ पुण्यकर्म में सुख यारुचि नहीं होती, पर उसका परिणाम रुचिकर अवश्य होता है । २८ तत्त्वार्थ सूत्र में पुण्य को शुभयोग वाला और पाप को अशुभयोग वाला कहा है।४२९ . हिंसा, चोरी, मैथुन आदि अशुभ काययोग है; कठोर, असत्य वचन, आदि अशुभ वचनयोग है; मारने का विचार, अहितकारी विचार आदि अशुभ मनोयोग है। इनसे विपरीत शुभ काययोग, शुभ वचनयोग, शुभमनोयोग हैं।१० जो आत्मा को पवित्र करे वह पुण्य, और जो आत्मा को शुभ से दूर करे वह पाप है। पुण्य का उदाहरण सातावेदनीय एवं पाप का उदाहरण असातावेदनीय ४२५. गणधारवाद १९४० ४२५. समयसार १४६ ४२६. स.सा. १४७.५० ४२८. भगवती ७.१०.१५-१८ ४२९. त.सू. ६.३ ४३०. स.सि. ६.३.६१४ १४१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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