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________________ धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये चारों विजातीय तत्त्व होने से जीव के द्वारा अग्राह्य हैं। इनका ग्रहण संसार का मात्र विस्तार ही करता है। अतः सुज्ञ चेतना इन विजातीय तत्त्वों का स्वरूप और स्वभाव पहचान कर उनसे दूर ही रहने का प्रयत्न करती है। आगे उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि जीव को मात्र उत्तम वैरागी महापुरुषों से ही अभिन्नता स्थापित करनी चाहिए, जिससे वह भी क्रमशः उत्तमता को प्राप्त हो सके। ___ अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में चेतना को समभाव में रहने की प्रेरणा इन पदों के माध्यम से स्पष्ट रूप से प्राप्त हो जाती है, और जब साध्वी विद्युत्प्रभाजी के शोध-प्रबन्ध को इसी विषय पर देखा तो हृदय प्रसन्नता से भर गया। ___ उनकी वक्तृत्व कला व लेखन कला के बारे में सामान्य रूप से सुना अवश्य था, पर जब इस गूढ़ विषय पर उनके विश्लेषण की क्षमता को देखा तो चकित हुआ था। अभी तक मैंने उन्हें संघ की आशा पू. गणिवर्य श्री मणिप्रभसागरजी महाराज की अनुजा के रूप में ही पहचाना था, पर धीरे-धीरे उनका स्वयं का स्वतंत्र व्यक्तित्व उभरता गया। निःसंदेह वे संघ की एक उदीयमान प्रतिभाशाली साध्वी हैं। इस शोध-प्रबंध में संदेश अथवा प्रेरणा नहीं है। इनमें मात्र स्वरूप को उजागर किया गया है। अगर हमने जड़ और चेतन के स्वरूप को भी पहचान लिया तो अवश्य ही उनका श्रम सार्थक होगा और हमारी चेतना जड़ संबन्धों को काटकर शुद्ध बनेगी। उनकी लेखन क्षमता और अधिक गंभीर एवं पैनी बने। इन्हीं शुभाशंसाओं के साथ.... VM Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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