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________________ ज्ञान और दर्शन की संयुक्त व्याख्या: सामान्य की मुख्यतापूर्वक विशेष को गौण करके पदार्थ के जानने को दर्शन कहते हैं और विशेष की मुख्यतापूर्वक सामान्य को गौण करके पदार्थ के जानने को ज्ञान कहते हैं । १३२ ज्ञान और दर्शन में अंतर : - ज्ञान और दर्शन जीव के स्वभाव हैं, अतः दोनों अभिन्न हैं, परन्तु कथंचित् भिन्न भी हैं। जिसके द्वारा देखा जाये और जाना जाये उसे दर्शन कहते हैं - इस प्रकार के लक्षण से, ज्ञान और दर्शन में कोई विशेषता नहीं रहेगी तथा चक्षुरिन्द्रिय और आलोक भी दर्शन हो जायेंगे ।' यदि कोई ऐसी शंका करे, तो उसका समाधान है कि नहीं! ऐसा नही है । अन्तर्मुख चित्प्रकाश को दर्शन और बहिर्मुख चित्प्रकाश को ज्ञान कहते हैं। देखने में सहकारी कारण होते हुए भी आलोक और चक्षु दर्शन नहीं हो सकते, क्योंकि चंक्षु और आलोक आत्मा के स्वभाव नहीं हैं । १३३ दर्शन मात्र सामान्य का ही ग्राहक नहीं है, इसी प्रकार ज्ञान मात्र विशेष का ही ग्राहक नहीं है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य सामान्य-विशेषात्मक हैं, और सामान्य विशेषात्मक वस्तु का क्रम के बिना ही ग्रहण होता है । दूसरी बात यह भी है कि सामान्य को छोड़कर मात्र विशेष अर्थक्रिया करने में असमर्थ है । अर्थक्रिया में जो समर्थ नहीं होती, वह अवस्तु होती है। उस अवस्तु का ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण नहीं होता । तथा मात्र विशेष का ग्रहण भी तो नहीं होता, क्योंकि सामान्य रहित केवल विशेष में कर्त्ता-कर्म रूप व्यवहार नहीं बन सकता। जब विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण नहीं बनता तो मात्र सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन भी नहीं बनता । १३४ दर्शन व ज्ञान में स्वपर - ग्राहकता का समन्वय : ज्ञान को बहिर्मुख प्रकाशक और दर्शन को अन्तर्मुख प्रकाशक कहा गया है । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि ज्ञान मात्र पर - प्रकाशक ही है और दर्शन मात्र स्व-प्रकाशक हैं । और केवल इसी विधि से आत्मा स्व-पर प्रकाशक दोनों १३२. स्याद्वादमं. १.८ १३३. धवला ९.१.४. १४५ १३४. बृ.द्र. स. ४४.२१५ - २१५ - २१८ एवं ध. १.१.१.४.१४६.३ Jain Education International ८७ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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