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________________ उपयोग के प्रकार :___उपयोग दो प्रकार का है- ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग ।१२२ इसे गुणरत्नसूरि ने षड्दर्शन की टीका में साकार चैतन्य (ज्ञान) और निराकार चैतन्य (दर्शन) भी कहा है ।१२३ बृहद् द्रव्यसंग्रह टीका में इसे सविकल्पक भी कहा गया है ।१२४ पंचास्तिकाय में जीवा को ज्ञानदर्शन से युक्त बताकर इन्हें जीव के साथ अनन्य व सर्वकाल भी कहा गया है, अर्थात् जीव में ज्ञानदर्शन रूप उपयोग तीनों कालों में रहता है। १२५ जो विशेष को ग्रहण करता है वह ज्ञान और जो सामान्य को ग्रहण करता है वह दर्शन है।९२६ जीव का लक्षण ज्ञान-दर्शनमय है। ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोगः___ दर्शन की व्युत्पत्ति इस प्रकार है- “पश्यति, दृश्यते दृष्टिमानं वा दर्शनम्" अर्थात् जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाता है अथवा देखनामात्र ही दर्शन है।१२७ जंब विषय और विषयी का सन्निपात होता है तब दर्शन होता है। विशेषण से शून्य 'कुछ' है, यह ग्रहण होना दर्शन है ।१२९ अभिप्राय यह है कि जब कोई ज्ञायक किसी पदार्थ को मात्र देखता है, उस प्रक्रिया में जब तक वह कोई विकल्प न करे, तब तक जो सत्तामात्र का ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं, और जैसे ही दृष्ट पदार्थ के शुक्ल, कृष्ण इत्यादि विशेषणों से युक्त विकल्प रूप की प्रतीति होने लगती है, तब उसे ज्ञान कहते हैं । १३० ___ज्ञान की परिभाषा देते हुए पूज्यपाद ने कहा है कि, जो जानता है, जिसके द्वार जाना जाता है, वह ज्ञान है ।१३१ १२२. स.सि. २.८.२७३ १२३. षडद. टी. ४९.९७., बृ.त.कृ. २.८.१५.८६ १२४. बृ.द.स.टी. ४.१५ १२५. पं.का. ४० १२६. पं. का.टी. ४०.७५ १२७. स.सि. १.१.६.४ १२८. वही १.१५.१९०.७९ १२९. २.भ.त. ४७.९ १३०. बृ.द्र.सं. ४३.२१६ १३१. स. सि. १.१.६४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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