________________
जैन सिद्धान्त सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित होता आया है। इसलिए जीवों का जिस प्रकार से सूक्ष्म विवेचन जैनसिद्धान्त में किया गया है, आज तक वैसा विश्लेषण और वर्गीकरण किसी सिद्धान्त लिए संभव नहीं हो सका। जिस सूक्ष्मस्थिति की कल्पना भी अन्यत्र नहीं की जा सकी, वहाँ जैनसिद्धान्त में जीवों का स्थान बताकर उनकी संपूर्ण आहार आदि क्रियाओं को विश्लेषित किया गया है ।
आचारांग के प्रथम अध्ययन में स्थावर जीवों का सूक्ष्म चिंतन होता है । स्थावर पाँच हैं- पृथ्वी, अप्, तेज, वायु और वनस्पतिं । २५१
अनेक प्रकार से आतुर मानव पृथ्वीकाय के जीवों को संतप्त करता है, उन जीवों की हिंसा करना, कराना व उसका अनुमोदन करना जीव के लिये घातक होता है । २५२
जिस प्रकार से व्यक्त वेदना-बोध जन्म से अन्ध, बधिर, मूक और पंगु मनुष्य को होता है, उसी प्रकार से अव्यक्त वेदना-बोध पृथ्वीकाय के जीवों को भी होता है ।
२५३
२५६ और
इसी प्रकार से अप्काय २५४ का, तेज: :काय का२५५, वायुकाय २५६, वनस्पतिकाय २५७ का विवेचन भी आचारांग में प्राप्त होता है ।
स्थावर के आहार स्थिति आदि की चर्चा :
पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजः काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की एवं उत्कृष्ट स्थिति २२ हजार वर्ष की है। इन सभी स्थावर जीवों का श्वसन कार्य विषम अर्थात् अनिश्चित् है ।
२५१. जीव विचार.
२५२. आचारांग - १.२.१५.१७
२५३. वही १.२.२८
२५४. वही १.३.३९-५३
२५५. वही १.४.७३.८४
उपलब्ध
२५६. वही १.७.१५२ - १६८
२५७. वही १.५.१०१-११२
Jain Education International
१११
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org