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चक्षुदर्शन आदि दर्शनों की अपेक्षा से आत्मा को दर्शनात्मा कहा जाता है। सभी जीवों में न्यूनाधिक रूप से दर्शन गुण पाया जाता है। एकदेशचारित्र या सर्वदेश चारित्र धारण करने वाले श्रावकों और मुनियों को चारित्रत्मा कहा जाता है । संसारी जीव सकरण वीर्य से युक्त होने के कारण और सिद्ध जीव अकरण वीर्य से युक्त होने के कारण जीव को वीर्यात्मा भी कहा जाता है।
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तत्त्वार्थ सूत्र में पारिणामिक भाव के तीन भेद किये हैं- जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व । २४७ ये तीनों भाव मात्र जीव द्रव्य में ही पाये जाते हैं, अन्य द्रव्यों में नहीं । जीवत्व का अर्थ 'चैतन्य' है । जिसमें सम्यग्दर्शन आदि भाव प्रकट होने की योग्यता है, उसे 'भव्य' एवं इससे विपरीत को अभव्य कहते हैं । २४८ इन तीनों भावों को शुद्ध पारिणामिक और अशुद्धपारिणामिक में भी वर्गीकृत किया जा सकता है।
संसारी जीवों का वर्गीकरण ( त्रस और स्थावर की अपेक्षा) :
काय दो प्रकार की है- सकाय और स्थावर काय । २४९ 'काय' शब्द का अर्थ शरीर है । सभी सम्मूर्छनजन्म, गर्भजन्म और उपपादजन्म भेद से जनित जीवों के तत्तत् शरीरजन्य क्षुधादि वेदनाएँ होती है एवं जो जीव क्षुधादि के कारण भोजनादि के लिए त्रस्त होते रहते हैं, वे त्रस हैं, और जो एक स्थान पर अवस्थित रहते हुए भोजनादि प्राप्त कर लेते हैं, वे स्थावर हैं। सरल शब्दों में कहा जाये तो जो चल फिर सकें वे त्रस हैं, एवं जो चल फिर न सकें; स्थिर रहें, वे स्थावर हैं । इस प्रकार, पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति को स्थावर कहा जाता है, शेष संसारी जीवस हैं। दूसरे शब्दों में एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर और शेष द्वीन्द्रियादि जीवों को त्रस कहा जाता है। वनस्पतिकाय की कुछ जातियों के जीव भोजनादि के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन करते देखे जाते हैं, अतः वे त्रस हैं या स्थावर ? ऐसी शंका का समाधान कर्मसिद्धान्त के आधार पर समझना चाहिएजिनके नाम कर्म का उदय है, वे त्रस हैं एवं जिनके स्थावर नाम कर्म का उदय है, वे स्थावर हैं । २५०
२४७. त.सू. २.७
२४८. स. सि. २.७.२६८
२४९. ठाणांग २.१६४ एवं उत्तराध्ययन ३६.६८, त.सू. २.१२
२५०. स. सि. २.१२.२८४
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