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________________ वस्तुतः कर्म तो असंख्य प्रकार के हैं, वर्गीकरण की दृष्टि से उन्हें आठ मूल प्रकृतियों एवं तिरानवें (९३) उत्तर प्रकृतियों में वर्गीकृत किया गया है। इसी प्रकार भावों के भेदों के विषय में भी समझना चाहिए। अर्थात् भावों के पाँच भेदों की एकत्र स्थिति की अवस्था को सान्निपातिक भाव कहा जाता है। पारिणामिक भावः · आत्मा का पारिणामिक भाव ही उसे अजीव से पृथक् सिद्ध करता है। पारिणामिक भाव आत्मा का स्वभाव है। अन्य सारे भाव कर्मसापेक्ष हैं जबकि पारिणामिक भाव कर्म उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना होते हैं, इसलिये ये ‘पारिणामिक' हैं।२४२ पंचास्तिकाय में जीव को परिणामी भाव के कारण ही अनादि-अनन्त कहा गया है।२४३ अनादि-अनन्त जीव औदयिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भाव से सादि सांत हैं, क्षायिक भाव से सादि अनंत है।२४४ भगवतीसूत्र में भावों की अपेक्षा से आत्मा के आठ प्रकार बताये गये हैं। जिस समय आत्मा जिस परिणाम (भाव) से युक्त हो, उस समय उसी भाव के आधार पर आत्मा को नाम दिया जाता है, यथा-द्रव्यात्मा, कषायात्मा, योगात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चरित्रात्मा और वीर्यात्मा।४५ इसका विस्तृत विवेचन भगवती सूत्र में प्राप्त होता है ।२४६ ___ द्रव्य की अपेक्षा से सभी जीवों को द्रव्यात्मा कहा जाता है। उपशान्त कषाय और क्षीणकषाय के अतिरिक्त सभी कषाययुक्त जीवों को कषायात्मा कहा जाता है। अयोगीकेवली और सिद्धों के अतिरिक्त सभी जीवों में कोई न कोई योग (मनोयोग, वचनयोग, या काययोग) रहता है, ऐसे जीवों को योगात्मा कहा जाता है। जीवमात्र का लक्षण उपयोग है, इसलिए सभी जीवों को उपयोगात्मा नाम दिया जाता है। सम्यग्दृष्टि जीवों के ज्ञानगुण की अपेक्षा से उन्हें ज्ञानात्मा कहा जाता है, ज्ञान यहाँ सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा से कहा है। २४२. स.सि. २.७.२६८ २४३. पंचास्तिकाय ५३ २४४. पं.का.ता.वृ. ५३ २४५. भगवती १०.१०.१ २४६.. भगवती १२.१०.२-८ १०९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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