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अणुरूप माना गया है, किन्तु यह अणु कालणु है, पुद्गलाणु नहीं, इसीलिए उसके स्कन्ध नहीं होते । जितने लोकाकाश के प्रदेश होते हैं, उतने ही कालाणु होते हैं । ये एक-एक कालाणु गतिरहित होने से लोकाकाश के एक-एक प्रदेश के ऊपर रत्नों की राशि की तरह अवस्थित हैं। आकाश के एक स्थान में मन्दगति से चलनेवाला परमाणु लोकाकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक जितने काल में पहुँचता है, उसे समय कहते हैं । यह समय अत्यन्त सूक्ष्म होता है और प्रतिक्षण उत्पन्न और नष्ट होने के कारण इसे पर्याय कहते हैं । यहाँ एक शंका हो सकती है, इस ‘समय, घण्टा, मिनिट' आदि के अतिरिक्त और कोई निश्चयकाल नहीं है । काल के दो भेद की कोई आवश्यकता नहीं है। इसका समाधान है - काल के दो भेद अनिवार्य हैं, क्योंकि 'समय, मिनिट, घंटा' आदि काल का ही पर्याय है, और पर्याय द्रव्य के बिना नहीं होती । जिस प्रकार घट रूप पर्याय का कारण मिट्टी है। उसी प्रकार समय, मिनिट आदि पर्यायों का कारण कालाणु रूप निश्चयकाल को मानना चाहिये ।
पुनः इसके समाधान में एक शंका हो सकती है कि समय-मिनिट आदि पर्यायों का कारण द्रव्य नहीं है, परन्तु मन्दगति से जाने वाले पुद्गल परमाणु ही इनका कारण है । जिस प्रकार निमेष रूप कालपर्याय की उत्पत्ति में आँखों की पलकों का खुलना और बन्द होना कारण है, उसी प्रकार व्यवहारकाल के 'दिन' रूप पर्याय की उत्पत्ति में सूर्य कारण है, न कि निश्चयकाल । इसका समाधान इस प्रकार दिया जा सकता है कि कारण और कार्य में परिवर्तन होने पर भी समानता अवश्य पायी जाती है। आँखों का खुलना और बन्द होना निमेष का, एवं दिन रूप पर्याय का कारण सूर्य ही उत्पादन कारण होता तो जिस प्रकार मिट्टी से बने घड़े में मिट्टी के रूप रस गुण आदि आते हैं, उसी प्रकार निमेष एवं दिन में क्रमशः आँखों की पलकों के खुलने और बंद होने के तथा सूर्य आदि के पुद्गल परमाणु आ जाते, परन्तु इस प्रकार से हमें इनमें ये पुद्गल उपलब्ध नहीं होते । अतः मानना होगा कि समय आदि व्यवहारकाल का उपादान कारण निश्चय काल है ।
काल का मुख्य उपकार पदार्थों के परिवर्तन में उदासीन सहयोग देना है। परिवर्तन दो प्रकार का है- क्षेत्रात्मक और भावात्मक । क्षेत्रात्मक परिवर्तन
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