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धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य द्वारा होता है, और भावात्मक परिवर्तन काल द्वारा निष्पन्न होता है। काल के अभाव में गुणात्मक या भावात्मक परिवर्तन की कल्पना संभव नहीं बनती। क्षेत्रात्मक परिवर्तन की प्रतिक्षण संभावना नहीं होती; जबकि भावात्मक परिवर्तन तो प्रारंभ ही रहता है।
यह भावात्मक परिवर्तन भी दो प्रकार का होता है- सूक्ष्म और स्थूल । सूक्ष्म परिवर्तन वह जो पदार्थ के अन्दर ही अन्दर होता रहता है। यह परिवर्तन दृष्टिगत नहीं होता । स्थूल परिवर्तन वह है जो बाहर से दृष्टिगत हो जाता है, परन्तु यह स्थूल परिवर्तन बिना सूक्ष्म परिवर्तन के संभव ही नहीं है; क्योंकि पदार्थ एकदम नहीं बदलता। छोटा सा बच्चा प्रतिक्षण कद में बढ़ रहा है, परन्तु वह महसूस नहीं होता; क्योंकि परिवर्तन सूक्ष्म है । यह सूक्ष्म परिवर्तन सभी द्रव्यों में 'पाया जाता है । स्थूल परिवर्तन मात्र जीव और पुद्गल में ही पाया जाता है। पुद्रल, मैटर और महाभूत प्रायः समानार्थी हैं:
अंग्रेजी में जिसे 'मैटर' कहा जाता है, जैन आगमों की भाषा में उसी को पुद्गल कहा जाता है। जो कुछ भी चित्र-विचित्र विविध स्वरूप हम देखते हैं, वह सारा पुद्गल का ही स्वरूप है। जैन आगमों ने संपूर्ण पदार्थों को छह काय में समाहित किया है- पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस । जब तक आत्मा इनमें विद्यमान होती है, ये जीवयुक्त कहलाते हैं। आत्मा के विमुक्त होते ही ये अजीव शुद्धपुद्गल होते हैं । जीवों का वर्गीकरण इन पौगलिक शरीरों के आधार पर ही किया गया है। जरा हम दृष्टिपात करें-सृष्टि के चारों ओर ऐसा कौन सा दृष्ट पदार्थ है जो कभी जीवाश्रय न रहा हो? चाहे पानी हो या आग, चाहे रत्न हो या . फल-फूल, सभी तो जीव पिंड या जीवाश्रय हैं।
ये छह काय भी पंचभूतों में समाविष्ट हो जाते हैं। छह काय में जो वनस्पति और त्रसकाय गिनाया है, ये दो इन पंच महाभूतों के संघात या मिलन से ही बनते हैं। इसका स्पष्ट विवेचन इस प्रकार से है
- पृथ्वी, जल आदि पंच महाभूतों के मेल में जिस भूत का अंश ज्यादा होगा, वह उसके अनुरूप ही बनेगा। जैसे पांचों के संघात में पृथ्वी का अंश ज्यादा है तो वह वस्तु ठोस होगी। यदि जल की अधिकता हो तो तरल होगी, तेज की
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