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कारण, पुनर्जन्मग्राही कोई तत्त्व एवं पुनर्जन्म के कारणों का उच्छेद, ये चार प्रमेय ही साक्षात्कार के विषय माने जा सकते हैं। इन प्रमुख प्रमेय तत्त्वों के विशेष स्वरूप के विषय में एवं इनके विस्तृत मंथन-चिंतन में प्रमुख दर्शनों का कभी तो इतना विरोध और मतभेद देखा जता है कि तटस्थ तत्त्वोन्वेषी असमंजस में पड़ जाता है। इस प्रवृति को देखते हुए इसका अधिक उपयुक्त अर्थ 'सबल प्रतीति'
जैन दर्शन में इसका दूसरा अर्थ है 'सामान्यबोध', जिसे अनाकार उपयोग भी कहते हैं। श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों मान्यताओं में 'अनाकार' शब्द ज्यादा प्रचलित है। लिङ्गसापेक्ष उपयोग या बोध तो ज्ञान है और लिङ्गनिरपेक्ष साक्षात् होने वाला बोध अनाकार या दर्शन है। यह तो एक मत है, दूसरा मत यह भी है कि जो मात्र वर्तमानग्राही बो है, वह दर्शन है और जो त्रिकालग्राही बोध है, वह ज्ञान है। २९
प्रचलित भाषाव्यवहार में 'दर्शन', 'दार्शनिक', 'दर्शनसाहित्य' आदि जो शब्द प्रयुक्त होते हैं, वे तत्त्वविद्या से संबंधित हैं। - 'दर्शन' शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है – “दृश्यते अनेन इति दर्शनम्', वस्तु के सत्य स्वरूप का जहाँ अवलोकन ही चिंतन हो वह दर्शन है। हम कौन हैं, कहाँ से आये हैं और हमारा क्या लक्ष्य है, यह चिंतन जगत् की ही देन है । दर्शन के इन चिंतन बिन्दुओं के बीज प्राचीनतम शास्त्र आचारांग में स्पष्टतया प्राप्त होते हैं ।३०
दर्शन शब्द की फिलोसोफी से तुलनाः... पाश्चात्य विचारशास्त्र की सामान्य संज्ञा 'फिलॉसोफी' है। यह शब्द दो शब्दों के मिश्रण से बना है- 'फिलास' अर्थात्, प्रेम या अनुराग और 'सोफिया' अर्थात् विद्या । इस शब्द का प्रचलन सर्वप्रथम ग्रीस देश में हुआ। इस संयुक्त शब्द के अर्थ से हमें पाश्चात्य दृष्टिकोण को समझने में सरलता आती है। पाश्चात्य दार्शनिक विद्यानुरागी या प्रज्ञावान् बनना चाहता है। प्रत्येक में छानबीन करके मनमानी कल्पना करने के लिए पश्चिम जगत् विख्यात है।
२८. पं. सुखलालजी : दर्शन और चिंतन पृ. ६७, ६८ २९. तत्त्वार्थभाष्य टीका २.९ ३०. आचारांग १.१.२ .
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