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________________ पश्चिम का दार्शनिक उस नाविक के समान है जो किसी गन्तव्य स्थल का निर्धारण किये बिना अपनी नौका विचार-सागर में तैरने के लिए छोड़ देता है। अगर नाव घाट पर लग जाये तो भी आनन्द, और न लगे तो भी आनंद।३१ भारतीय दार्शनिक लक्ष्य का निर्धारण करके चिंतन के सागर में उतरता है, और इसके फलस्वरूप मुक्ति-मंजिल स्वरूप आत्मशुद्धि का मोती उसे अवश्य हाथ लगता है।३२ . पश्चिम में धर्म से भिन्न दर्शन छट्ठी शताब्दी पूर्व यूनान में प्रारंभ हुआ। लगभग एक हजार वर्ष तक विचरण करता हुआ दर्शन एक बार फिर ईसाई धर्म में निमग्न हआ। पाँचवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक का समय दर्शन का अंधकारमय युग कहलाता है, क्योंकि इस कालखण्ड में दर्शन ईसाई धर्म का दास रहा।३३ भारत में इस प्रकार की हठधर्मिता कभी नहीं रही। श्री हैपन के अनुसार "भारत में धर्म की रूढ़ि या हठधर्मिता का स्वरूप कभी प्राप्त नहीं रहा; वरन् यह मानवीय व्यवहार की ऐसी क्रियात्मक परिकल्पना है,जो आध्यात्मिक विकास की विभिन्न स्थितियों में और अवस्थाओं में अपने आपको अनुकूल बना देती दार्शनिक के मापदंड एवं उसकी विशेषताएं:- . सत्यान्वेषी को अपना अन्वेषण प्रारम्भ करने से पूर्व अपेक्षित योग्यता को अवश्य अर्जित करना पड़ता है। (अ) सत्यान्वेषी में जिज्ञासुप्रवृत्ति अवश्य होनी चाहिए। जिससे वह प्रकट रूप में असंबद्ध सामग्री के समूह से सत्य स्वरूप को ढूँढकर निकाल सके। (ब) वह एकाग्रता से किसी विषय से जुड़कर अविचलित मन से विषय की तह में जाये । (क) कर्मफल की आकांक्षारहित प्रवृत्ति; उसका लक्ष्य फलप्राप्ति नहीं होना चाहिए, अपितु उसका एकमात्र लक्ष्य अन्वेषण ही ३१. बलदेव उपाध्यायः भारतीय दर्शन, उपोद्वात, पृ. ५ ३२. प्रवचनभक्तिश्रुतसंपद्धर्मा....जनकानि। -प्रशमरति १४१ ३३. ग्रीक एवं मध्ययु. दर्शनों का वै. चिंतन जगदीश. १.२ ३४. डॉ. राधाकृष्णन भारतीय दर्शन, भाग १, पृ. २१ से उद्धृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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