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होना चाहिए। (ड) उसकी दृष्टि पूर्वाग्रह से रहित एवं तटस्थ होनी चाहिए। (इं) उसका अपना अन्तर्मन पूर्णरूपेण प्रशिक्षित होना चाहिए। उसमें शान्ति, धैर्य,
आत्मसंयम, त्याग और श्रद्धा का होना अनिवार्य है। उसे सांसारिक आकर्षण एवं प्रलोभनों से अविचलित रहना चाहिए। (ई) उसमें मुमुक्षुवृत्ति (आध्यात्मिकवृत्ति) के पूर्ण समर्पण का भाव होना चाहिए। (उ) लक्ष्य प्राप्ति और उसके समीप पहुँचने की प्रबल आकांक्षा मात्र ही अवशेष रहना । ३५ ऐसे दार्शनिक ही भारतीय जनमन के श्रद्धास्पद एवं विशिष्ट सम्माननीय बन सकते हैं। भारतीय संस्कृति व सभ्यता की सफलता का कारण यही है कि इन दार्शनिकों का संपूर्ण चिंतन उपदेशों के रूप में परहित के लिए सदैव बरसता रहा।
आस्तिक एवं नास्तिक दो प्रकार की विचार पद्धति :
हम पूर्व में ही स्पष्ट कर आये हैं कि भारतीय विचारपद्धति सदा से ही उदार एवं सहिष्णु रही है। मुख्य रूप से यहाँ दार्शनिक जगत् में दो विचारधाराएँ प्रचलित हैं, आस्तिक एवं नास्तिक । साधारण बोलचाल की भाषा में ईश्वर में श्रद्धा, आस्था रखने वाले दर्शन को आस्तिक एवं श्रद्धा न रखनेवाले को नास्तिक कहते
__ पाणिनी ने इसकी शास्त्रीय व्याख्या अपनी अष्टाध्यायी में इस प्रकार की है। "अस्ति परलोके मतिर्यस्य स आस्तिकः।” अर्थात् आस्तिक वह है जिसकी परलोक में आस्था हो । 'आस्तिक', 'नास्तिक' तथा 'दैष्टिक' शब्दों की सिद्धि “अस्तिनास्तिदिष्टं मतिः” (४.४.६०) सूत्र से ठक् प्रत्यय द्वारा होती है। पाणिनी की इस व्याख्या के अनुसार जैन और बौद्ध दर्शन भी आस्तिक दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं।
.परन्तु मनु ने आस्तिक और नास्तिक की व्याख्या अलग प्रकार से की है। मनु के अनुसार आस्तिक वह है जो वेद की प्रामाणिकता में विश्वास करे और . नास्तिक वह है जो वेद में विश्वास न करे। ... ... परन्तु निष्पक्ष और तटस्थ दृष्टिकोण से देखा जाये तो मात्र चार्वाक दर्शन ही नास्तिक दर्शन की कोटि में आता है। जैन दर्शन लोक-परलोक एवं ईश्वर
३५. वेदान्त दर्शन, शांकरभाष्य १.१
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