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________________ परन्तु जैन दर्शन सामान्य-विशेषात्मक सत्ता युक्त को ही सत् मानता है । उसका स्पष्ट कथन है कि विशेष रहित सामान्य खरगोश के सींग के समान है और सामान्य रहित विशेष भी इसी प्रकार से असत् है । ७९ चन्द्राचार्य ने भी अपने ग्रन्थ में एकान्त सामान्य विशेष का खंडन करते हुए कहा कि जो अलग-अलग दिखने वाली पाँच अँगुलियों में केवल सामान्य रूप को देखता है वह पुरुष अपने सिर पर सींग ही देखता है । अतः विशेष को छोड़कर मात्रपदार्थों में सामान्य का ज्ञान होना असंभव है। बौद्ध सामान्य और स्वलक्षण में भेद मानते हैं । उनके अनुसार स्वलक्षण का कार्य अर्थक्रिया करना है, सामान्य कोई अर्थक्रिया नहीं करता । स्वलक्षण परमार्थसत् है और सामान्य संवृत्तसत् अर्थात् काल्पनिक है । " जैन दर्शन वस्तुको विरोधी युगल से सिद्ध करता है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार “विरोधी धर्मों का अविरुद्ध सद्भाव प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है । वस्तु में विरोधी धर्म का होना वस्तु को भी रुचिकर है, हम उनका निषेध नहीं कर सकते । १ ८२. सामान्य और विशेष को निरपेक्ष या अभिन्न मानना प्रमाणाभास हो सकता है, प्रमाण नहीं ॥३ हम सामान्य को शाश्वत और विशेष को अशाश्वत भी कह सकते हैं, क्योंकि आचार्य समन्तभद्र ने स्पष्ट कहा है कि सामान्य की अपेक्षा वस्तु न उत्पन्न होती है और न नष्ट, परन्तु विशेष की अपेक्षा उत्पन्न भी होती है और नष्ट भी । ४ वस्तु (सद्) का अर्थक्रियाकारी होना तभी संभव है जब उसमें विरोधी धर्मों का युगपत् अस्तित्व हो । विधि और निषेध रूप उभयधर्मों की एक साथ उपलब्धि ७९. निर्विशेषं हि सामान्यं भवेच्छशविषाणवत. - मी. लो. आकृ. श्लो. १०. ८०. एतासु पंचस्ववभासनीषु ईक्षते स. अशोकविरचित सामान्य द्रषणदिक्गन्थे उद्धृतेयम् स्याद्वाद. २४.९२२ ८९. यदेव अर्थक्रियाकारि.... स्वासामान्यलक्षणे । - प्रमाण वा २.३ ८२. विरुद्ध मपि संसिद्धं तत्र के वयम् - अष्टस. पृ. २९२ ८३. प्रमाण नयतत्वा. ६.८६.८७ ८४. न सामान्यत्मनो....दयापि सत् । - आ.मी. ९.५७ Jain Education International ५७ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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