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________________ सांख्य के पुरुष का आदि है और न अन्त । यह निर्गुण, सूक्ष्म, सर्वव्यापी, नित्यदृष्टा, इन्द्रियातीत तथा मन की पहुंच से बाहर है। यह व्यवहारिक अर्थों में सब वस्तुओं को नहीं जानता, क्योंकि शारीरिक सीमा में सीमित इन्द्रियों और मन के द्वारा ही ज्ञान संभव है। जब आत्मा इस सीमा से मुक्त होता है तब इसे परिवर्तन का बोध नहीं रहता, अपितु यह अपने स्वरूप में रहता है। ११० पुरुष प्रकृति से संबद्ध नहीं है, मात्र दर्शक है, उदासीन है, अकेला है और निष्क्रिय पुरुष और प्रकृति परस्पर प्रतिकूल लक्षण वाले हैं। प्रकृति परिवर्तनशील है। पुरुष अमूर्त, चेतन, नित्य, सर्वगत, निष्क्रिय, अकर्ता, भोक्ता,निर्गुण, सूक्ष्म आत्मा है। जबकि प्रकृति त्रिगुणात्मक (सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण) प्रमेय है, अहंकार सहित है और जीव है । १२ सांख्य दर्शन में पुरुष और आत्मा भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं। अहंकार सहित पुरुष हीजीव है ।११३ विशुद्ध आत्मा बुद्धि से परे है जबकि बुद्धि के अंदर पुरुष का प्रतिबिम्ब अहंभाव के रूप में प्रतीत होता है, जो हमारी सभी अवस्थाओं का, जिसमें सुख दुःख भी सम्मिलित हैं, बोध प्राप्त करने वाला है। जब तक हम आत्मा को बुद्धि से भिन्न नहीं समझते, जो लक्षण और ज्ञान में बुद्धि से भिन्न है, तब तक हम बुद्धि को ही आत्मा समझते रहते हैं।११४ प्रत्येक अहंभाव एक ऐसा सूक्ष्म शरीर रखता है जो इन्द्रिय सहित मानसिक उपकरण से निर्मित है, और यही सूक्ष्म शरीर पुनर्जन्म का आधार है ।११५ १०८. भा. दर्शन डॉ. राधा. भाग २ पृ. २७९ १०९. सा. प्र. सू. ६.४५ ११०. सा. प्र. सूत्र वृत्ति ६.५९ १११. सां. का. १९ ११२. सा. प्र. सू. वृत्ति ६.६३ ११३. सां. प्र. भाष्य ६.६३ ११४. योगसूत्र २.६ ११५. सां. प्र. सू. ३.१६ ४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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