________________
क्षायिक भाव :
कर्मों का सर्वथा आत्मा से अलग हो जाना, क्षय है। कतक (फिटकरी) डालने से निर्मल हुए पानी को दूसरे बर्तन में डालने से जैसे कीचड़ का अत्यन्त अभाव हो जाता है ।२३१ ...यह क्षायिक भाव नवभेद युक्त है। ज्ञान दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, सम्यक्त्व और चारित्र!२३२ समग्र ज्ञानावरण, दर्शनावरण, दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, वीर्यान्तराय, दर्शनमोह व चारित्र मोह के आत्यान्तिक क्षय होने पर इन क्षायिक भावों का प्रकटीकरण होता है। दानादि लब्धियों के कार्य के लिए शरीर नामकर्म व तीर्थंकर नामकर्म के उदय की अपेक्षा होती है। चूँकि सिद्धों में इनका उदय नहीं है, अतः उनमें ये लब्धियाँ अव्याबाध अनन्तसुख रूप से रहती है, जैसे-केवलज्ञान रूप में अनन्तवीर्य ।२३३ ये नौ क्षायिकभाव चारघातीकर्मों से रहित सशरीर (सकल परमात्मा) और अशरीर (मुक्त-निकल परमात्मा), दोनों में प्रगट रहते हैं। ___औपशमिकसम्यग्दर्शन, औपशमिकचारित्र और क्षायिक भाव भव्य जीव में ही पाये जाते हैं ।२३४ . मिश्र (क्षायोपशमिक) भाव:___ इसे क्षायोपशमिक भाव भी कहते हैं। क्षायोपशमिक भाव कर्मों के आंशिक उपशम और आंशिक क्षय से पैदा होता है। जिस प्रकार फिटकरी आदि के प्रयोग से जल में कुछ कीचड़ का अभाव हो जाता है और कुछ बना रहता है।२३५
क्षायोपशमिकभाव के १८ भेद हैं-चार ज्ञान (मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवंज्ञान), तीन अज्ञान (मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, अवधिज्ञान), तीन दर्शन (चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन), पाँच लब्धियाँ
२३१. स.सि. २.१.२५२ २३२. त.सू. २.४ २३३. त.रा.वा. २.४.१-७.१०५-१०६ २३४. स.सि. २.१.२५३ २३५. स. सि. २.१.२५२
१०७
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org