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यहाँ एक प्रश्न यह भी होता है कि जिस प्रकार ज्ञानादि आत्मपरिणाम और दही आदि पुद्गल परिणामों की उत्पत्ति परस्पराश्रित है, उसके लिए धर्म और अधर्म जैसे किसी अतीन्द्रिय द्रव्य की आवश्यकता नहीं है। उसी प्रकार से गति और स्थिति के लिये धर्म और अधर्म की कहाँ आवश्यकता हैं? अकलंक उनके समाधान में कहते हैं- ज्ञानादि पर्यायों की उत्पत्ति के लिए जैसे 'काल' नामक साधारण बाह्यकारण की आवश्यकता है, उसी तरह धर्म और अधर्म की भी गति
और स्थिति के लिए आवश्यकता है। ___ आचार्य अकलंक तत्त्वार्थराजवार्तिक में सांख्य, बौद्ध और वैशेषिक को उत्तर देते हुए कहते हैं- अमूर्त होने से ही धर्म और अधर्म का अपलाप नहीं किया जाता क्योंकि अमूर्त प्रधान अहंकार (सांख्य के अनुसार) आदि विकार रूप से परिणत होकर पुरुष के भोग में निमित्त होता है, विज्ञान (बौद्धसम्मत) अमूर्त होकर भी नाम-रूप की उत्पत्ति का कारण होता है । अदृष्ट (वैशेषिकसम्मत) अमूर्त होकर भी पुरुष के उपभोग और साधनों में निमित्त होता है, उसी तरह धर्म
और अधर्म अमूर्त होने पर भी गति और स्थिति में साधारण निमित्त माने जाने चाहिए।४५
इस प्रकार अगर धर्म और अधर्म की मान्यता नहीं होती तो शुद्धात्मा आज तक उड़ान ही भरती रहती और उसकी इस अनन्त यात्रा का कभी अन्त नहीं होता। क्योंकि आकाश का कहीं अन्त नहीं है- यह तो और भी बड़ी परतन्त्रता हो जाती; और भी बड़ा दुःख हो जाता, परन्तु ऐसा नहीं है। धर्म और अधर्म के अस्तित्त्व के कारण मुक्तात्मा लोक के अग्रभाग पर जाकर स्थिर हो जाती है, क्योंकि गतिसहायक धर्मास्तिकाय की अलोक में अनुपस्थिति है और ग्रहउपग्रह आदि का परस्पर घर्षण भी अधर्मास्तिकाय के कारण संभव नहीं है; क्योंकि अपनी ही परिधि में निरन्तर भ्रमणशील इनका संतुलन अधर्मास्तिकाय स्थापित कर देता है। आकाशस्तिकाय का लक्षण और स्वरूप :___ अस्तिकाय अजीव द्रव्यों में तीसरा अस्तिकाय द्रव्य आकाश है। ठाणांग में इसका विवेचन और लक्षण इस प्रकार बताया है- आकाशस्तिकाय अवर्ण, ४४. वही ५.१७.३६.४६५ ४५. वही ५.१७.४१.४६६
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