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म एक है और न अनेक । एक इसलिए नहीं क्योंकि पदार्थों में विविधता है और उस विविधता को सिद्ध करने वाला प्रमाण न होने के कारण ‘अभाववैकान्त' कहना ठीक है।”९५ .. जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि अनादि-अनन्त है, उसमें न तो नया उत्पाद है
और न प्राप्त सत् का विनाश है । वह मात्र पर्याय परिवर्तन करता रहता है। ... न तो असत् से सत् उत्पन्न होता है और न ही सत् का कभी विनाश होता है। समस्त साधन की उपलब्धता में भी मृत्पिंड के अभाव में घड़े का उत्पाद नहीं होता ।१६ भाव (द्रव्य) मात्र गुण और पर्याय में परिवर्तन करते हैं, परन्तु सत् का उत्पाद या विनाश कभी नहीं होता। हरिभद्रसूरि ने शास्त्रवार्ता समुच्चय में भी इसी व्याख्या की पुष्टि की है।९८ . __जैन दर्शन ने द्रव्य छह माने गये हैं-धमास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं काल ।' तत्त्वार्थसूत्र में यद्यपि 'काल' द्रव्य का वर्णन उपर्युक्त पाँच अस्तिकाय द्रव्यों के वर्णन के साथ तो नहीं उपलब्ध होता, परन्तु इसी (पाँचवें) अध्याय के पैंतीसवें सूत्र में काल को द्रव्य के रूप में लिया है।०° राजवार्तिक में द्रव्य की संख्या उपलब्ध होती है । १०१ कुंदकुंदाचार्य को परिवर्तन लिंग युक्त कहकर द्रव्य की संख्या स्वीकार की है । १०२ वे सभी द्रव्य परस्पर मिश्रित रहकर एक दूसरे में प्रवेश करते हैं, एक दूसरे को अवकाश देते हैं, परस्पर मिल जाते हैं फिर भी अपने स्वभाव का त्याग नहीं करते । १०३. ९५. भावा येन निरूप्यन्ते तद्रूपं नास्ति तत्त्वतः । यस्मोदकमनेकं च, रूपं तेषां न विद्यते।। .
-प्रमाणवार्तिका. २.३६० ९६. शास्त्रवार्तासमुच्चय, ६.२८ ९७. भावस्म णत्थि णासो.... पुकव्वंति ।- पं.का. १५ ९८. शास्त्रवार्तासमुच्चय, ६.३७ एवं ११.५ ९९. तत्त्वार्थसूत्र, १.३ १००. तत्त्वार्थसूत्र, ५.३५ १०१. राजवार्तिक, ५.३.४४२ १०२. पं. का. २.६ १०३. अण्णोण्णं पविसंता.....विजंहति प.का.न.
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