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२. कर्म से असंग:- मिट्टी के लेप से वजनदार तुम्बी पानी में डूब जाती है; परन्तु
ज्योंहि मिट्टी का लेप हटता है, तुम्बी ऊपर आ जाती है, उसी तरह कर्म से भारी आत्मा भटकता रहता है, पर अकर्ममुक्त होते ही ऊर्ध्वगमन कर जाता
३. बंधच्छेहः- जिस प्रकार बीजकोश से बन्धन टूटने से एरण्डबीज ऊपर की
ओर जाता है, वैसे ही गति नामकर्म आदि कर्मों के बन्धन के हटते ही मुक्तात्मा की स्वाभाविक ऊर्ध्वगति होती है ।५०३ ... ४. अग्निशिखावत्:- जैसे तिरछी बहने वाली वायु के अभाव दीपदिखा स्वभाव
से ऊपर की ओर जाती है, वैसे ही मुक्तात्मा भी नाना विकारों के कारण कर्म के हटते ही ऊर्ध्वगतिस्वभाव से ऊपर को ही जाती है । ५०४ . - इस प्रकार चारों कारणों को तत्त्वार्थसूत्र में वाचक उमास्वाति ने चारों उदाहरणों को सूत्र द्वारा स्पष्ट भी किया है।५०५ ... .. मुक्त जीवों का लोकाग्र तक ही गमन होने में कारण:- लोकाग्र तक ही... सिद्धात्मा जाता है; उससे आगे नहीं जा पाता; क्योंकि गमन का कारण धर्म द्रव्य है जिसका अलोक में अभाव हैं ।५०६. .: मुक्त जीवों के क्षायिकभावः- मोक्षावस्था में भी केवल सम्यक्त्व,.. केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्व इन चार भावों का क्षय नहीं होता।५०७ उन्हें पुनः संसार में आकर जन्म-मरण करने की बाधा भी हीं है। मूर्त अवस्था में ही प्रीति, परिताप आदि बाधाओ की संभावना थी।५०८.....
५०२. त.रा.वा. १०.७.३.६४५ ५०३.त.रा.वा. १०.७.५.६४५ ५०४. त.रा.वा. १०.७.६.६४५ ५०५. त.सू. १९.७ ५०६. त.सू. १०.७ ५०७. त.सू. १०.४ ५०८. यस्मिन्नेव देशे कर्मविप्रपोक्षस्तस्मिन्ने प्राप्षनीज्ञेति पुनर्गतिकाराभावदिति, तन्नः किं कारणम्
साध्यत्वात्- त.वा. १०.४.१९.६४४
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