SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नय की व्याख्या करते हुए आचार्य पूज्यपाद ने कहा - अनेकान्तात्मक वस्तु में विरोध के बिना, हेतु की मुख्यता से साध्यविशेष की यथार्थता के प्राप्त कराने समर्थ प्रयोग को नय कहते हैं । ९२ यहाँ यह भी प्रश्न हो सकता है कि वस्तु तो अनन्तधर्मात्मक है, तब उसके एक अंश को ग्रहण करने वाले ज्ञान को नय कैसे कहते हैं । इसका समाधान यही है कि नय के अभाव में स्याद्वाद की व्याख्या संभव नहीं है। जो एकान्तवाद या आग्रह से अपनी मुक्ति चाहता है उसे नय को जानना अत्यन्त आवश्यक है । १३ अनेकान्त की सिद्धि में नय की वही भूमिका है जो सम्यक्त्व में श्रद्धा की, गुणों में तप की और ध्यान में एकाग्रता की है । १४ नय को विकलादेश भी कहते यहाँ यह जिज्ञासा हो सकती है कि नय प्रमाणभूत है या अप्रमाणभूत । इसका समाधान हाँ में भी नहीं दिया जा सकता और ना में भी नहीं। जैसे घड़े में भरे समुद्र के जल को न समुद्र कहा जाता है न असमुद्र ।" जैसे घडे का जल समुद्रैकदेश है समुद्र नहीं, वैसे ही नय प्रमाणैकदेश हैं अप्रमाण नहीं । अन्तर इतना है कि प्रमाण में पूर्ण वस्तु का ग्रहण होता है और नय में वस्तु के किसी एक पक्ष का पूर्व में हम इन्हीं प्रमाणैकदेश भूत नयों के द्वारा वस्तु में सप्रतिपक्षत्व, त्राच्यावाच्यत्व आदि धर्मों का प्रतिपादन कर आये हैं । यहाँ इन वस्तुधर्मों को अन्य भारतीय दर्शनों में किसने और किस स्वरूप में स्वीकार किया है, इसका अंगुलनिर्देश निम्न अनुच्छेदों में किया जा रहा है। ९२. स. सि. १३३.२४१ ९३. नयचक्र १७५ ९४. नयकचक्र १७६ ९५. स. सि. १.६.२४ ९६. नायं वस्तु..... यथोच्यते, तत्त्वार्थश्लोक १.६ Jain Education International ५९ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy