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________________ 1 निरन्तर आगे बढ़ती रहती है। मार्ग में जहाँ उसे अवरोध मिलता है, वहाँ ही वह दृश्यमान होती है । प्रतिच्छाया के रश्मिपथ में दर्पणों (Mirrors) और अणुवीक्षों (Lenses) का आ जाना भी एक प्रकार का आवरण है । इसी प्रकार के आवरण से वास्तविक (Real) और अवास्तविक (Virtual) प्रतिबिंब बनते हैं । ऐसे प्रतिबिंब दो प्रकार के होते हैं। वर्णादिविकारपरिणत और प्रतिबिंबमात्रात्मक ।“ वर्णादिविकारपरिणत छाया में विज्ञान के वास्तविक प्रतिबिंब लिये जा सकते हैं, जो विपर्यस्त (inverted) हो जाते हैं और जिनका परिमाण (Size) बदल जाता है । ये प्रतिबिंब प्रकाश - रश्मियों के वास्तविक (Actual) मिलन से बनते हैं । प्रतिबिंबात्मक छाया के अन्तर्गत विज्ञान के अवास्तविक प्रतिबिंब (Virtual images) रखे जा सकते हैं जिनमें केवल प्रतिबिंब ही रहता है । प्रकाश - रश्मियों के मिलने से ये प्रतिबिंब नहीं बनते । ८९ 4 आधुनिक विज्ञान ने ऐसे इलेक्ट्रानिक तोलमापी यंत्र तैयार किये हैं जिनकी सूक्ष्ममापकता 'अक्लपनीय है, जिनमें १००० पृष्ठों के ग्रन्थों के अंत में बढ़ाये हुए एक फुलस्टाप, परछाई जैसी 'न कुछ' वजनी वस्तुओं के भार भी ज्ञात किये जा सकते हैं ।" विज्ञानलोक का उल्लेख यह सिद्ध करता है कि परछाई पदार्थ है । और वह इतना भारवान् भी है कि उसे तौला जा सकता है। 1 प्रतिबिंब कभी-कभी मृग मरीचिकाओं के रूप में भी प्रकट होते हैं। गर्मी में दोपहर के समय रेगिस्तान जहाँ मीलों तक पानी का नामोनिशान नहीं होता, वहाँ पानी से भरे जलाशय दिखते हैं। मृग अपनी प्यास बुझाने जाता है, पर उसे वहाँ पानी नहीं मिलता । वह दूसरी जगह जाता है, जहाँ उसे पानी नजर आता है, पर वहाँ भी नहीं मिलता । इसे ही मृगमरीचिका कहते हैं। इस प्रकार के सभी दृश्य जो सचमुच कुछ नहीं होते, केवल दिखायी देते हैं, वे मृगमरीचिका के नाम से सम्बोधित किये जाते हैं । 'मृगमरीचिका' वस्तुओं का अस्तित्व न होने पर भी दिखायी देना, एक वस्तु होने पर भी उसके अनेक प्रतिबिंब दिखना, वस्तुओं का अदृश्य होना आदि अनेक रूपों में स्पष्ट होती है । ८८. सु.सि. ५.२४५७२ ८९. मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ पृ. ३८५ ९०. विज्ञान लोक दिसम्बर १९६४ पृ. ४२ Jain Education International २२७ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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