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________________ मीमांसाक की मान्यता- “दर्पण में छाया नहीं पड़ती, परन्तु नेत्र की किरणें दर्पण से टकराकर वापस लौटती हैं और अपने मुख को ही देखती हैं” उचित नहीं है । क्योंकि नेत्र की किरणें जैसे दर्पण से टकरा कर मुख को देखती हैं, उसी तरह दीवाल से टकराकर भी उन्हें मुख को ही देखना चाहिये। इस प्रकार जब किरणें वापस आती हैं तो पूर्व दिशा की तरफ जो मुख है, वह पूर्वाभिमुख है दिखना चाहिये, पश्चिमाभिमुख नहीं । मुख की दिशा बदलने का कोई कारण नहीं है । ९९ आतपः जैनदर्शन में आप को भी पुद्गल की ही अवस्था कहा गया है । ९२ 'आतप ' शब्द 'तप् सन्तापे' धातु से बना हुआ है, जिसका अर्थ है - ताप उष्ण किरणें । अर्थसंकोच सिद्धान्त के आधार पर मात्र सूर्य की धूप को 'आतप' कहा जाता है। जैनदर्शन में अग्नि को आतप नहीं माना गया है, जबकि धूप को आतप माना गया है। इससे भी इस बात की पुष्टि होती है कि वस्तु में रही हुई उष्णता वस्तु या द्रव्य का गुण है और उष्णता का वस्तु से अलग अस्तित्व वस्तु या द्रव्य की पर्याय है। आग रूप कोयला, लकड़ी आदि ईंधन की उष्णता कोयला आदि वस्तुओं का उष्ण गुण है, यह आतप नहीं है । आतप है आग की आंच जो आग्नेय पदार्थों से भिन्न होकर चारों ओर फैलती है और जिसका अनुभव आग से दूर बैठा व्यक्ति करता है । यद्यपि यह आग से निकली है, फिर भी इसका अस्तित्व आग से अलग है, जैसे सूर्य से निकली किरणों का सूर्य से अलग अस्तित्व है । ताप या धूप पर्याय हाने के कारण स्थानांतरित होती है । जिस प्रकार इलेक्ट्रोन तथा प्रोट्रोन एक दृष्टि से पदार्थ हैं और दूसरे दृष्टिकोण वैद्युतिक तरंगों के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं, उसी प्रकार प्रकाश विकिरण के संबन्ध में हम कह सकते हैं कि वह पदार्थ का तरंग रूप है और पदार्थ के संबन्ध में कह सकते हैं कि यह विकिरण का बर्फ की तरह जमा हुआ रूप है । १३ ९१. त. रा. वा. ५.२४ १७.४८९ ९२. त. रा. वा. ५.२४ १८.४८९ ९३. नवनीत दिसम्बर १९५५ पृ. ३२ Jain Education International २२८ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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