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स्वकाल की अपेक्षा पुद्गल अनित्य हैं; क्योंकि वे उत्पाद, विनाश करते रहते हैं।
स्वभाव की अपेक्षा पुद्गल मूर्तिक हैं, इन्द्रियगोचर हैं । गुण की अपेक्षा पुद्गल में वर्ण, गन्ध, रस, तथा स्पर्श गुण पाये जाते हैं। पुद्गल के उपकारः__ संसारी जीव पुद्गल के आभाव में रह ही नहीं सकते। उनकी समग्रता पुद्गल द्वारा ही संपन्न होती है। हमारा शरीर (जिसका विवेचन पूर्व में किया जा चुका है) पुद्गल की ही देन है। भाषा, मन, प्राण, अपान आदि सब पुद्गल का ही उपकार है ।११२
जीवन में प्राप्त सुख, दुःख, जीवन, मरण आदि समस्त पुद्गल के ही उपकार हैं। जैसे अनुचर अपने स्वामी की आज्ञा मानने को बाध्य रहता है वैसे ही पुद्गल द्वारा निर्मित इन्द्रिय आदि जीव की आज्ञा मानते ही हैं । ११३
. इस प्रकार इस अध्याय में पुद्गलस्तिकाय का नातिविस्तृत विवेचन किया। अब प्रश्न उठता है कि पुद्गल को जानने का प्रयोजन क्या है?
इसका समाधान इस प्रकार है- मुख्य तत्त्व तो दो ही हैं- जीव और अजीव । जब तक जीव अजीव के स्वरूप, स्वभाव, और प्रकृति को नहीं समझ लेगा तब · तक वह अजीव से मुक्त होने का न तो प्रयास कर सकेगा और न मुक्ति की रुचि
पैदा होगी। पुद्गल का चित्र-विचित्र रंग-बिरंगा आकर्षण जीव को मुग्ध करता रहेगा। जीव इस आकर्षण से मुक्ति हेतु तभी पुरुषार्थ करेगा, जब उसे हेय और उपादेय का सम्यक् ज्ञान हो जायेगा। वस्तुस्वरूप को जानकर ही जीव हेय (त्याज्य) का त्याग एवं उपादेय (ग्राह्य) का ग्रहण कर सकेगा।११४ इस पंचास्तिकाय के स्वरूप को जानकर जो रागद्वेष को छोड़ता है, वही मुक्त होता है। यही पुद्गल द्रव्य को जानने का प्रयोजन है।
११२. जैन दर्शन में पदार्थ विज्ञान पृ. १६३.६४ ११३. तं.सू. ५.२० ११४. पं.का. १०३
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