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अध्याय : तृतीय जैन दर्शन के अनुसार आत्मा
आत्मा शब्द का अर्थ:
'आत्मा' शब्द का मूल रूप आत्मन् है। ‘आत्मन्' शब्द की व्युत्पत्ति है 'अतति-गच्छति-जानाति इति आत्मा' । अत् सातत्य गमने धातुः' अर्थात् 'अत्' धातु सतत् गमन के अर्थ में है। यहाँ गमन का अर्थ ज्ञान है । अर्थात् जो सतत जानता है; एक भी क्षण अज्ञानी नहीं होता, वह आत्मा है। जो शुभ, अशुभ रूप कायिक, वाचिक एवं मानसिक व्यापार यथासंभव तीव्र, मंद आदि रूपो में होते हैं, वे सभी ज्ञान गुण के कारण ही सम्भव होते हैं। ज्ञानादिगुण आत्मा द्रव्य के आश्रयी हैं । अतः उपर्युक्त व्युत्पत्ति सार्थक है।
'आत्मा' शब्द के बारे में एक तथ्य यहाँ स्पष्ट किया जाना आवश्यक है कि संस्कृत में 'आत्मन्' शब्द पुंल्लिंग है, जबकि हिन्दी में यह प्रायः स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होता है । यह लिंगव्यवस्था शब्द के साथ है, आत्मतत्त्व न तो पुंल्लिंग है और न ही स्त्रीलिंग, वह तो अलिंग है। जैन साहित्य में कुछ ऐसे प्रयोग अन्य शब्दों के साथ भी हैं, जैसे-कषाय, पर्याय ये दोनों शब्द स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होते हैं, ठीक वैसे ही जैसे हिन्दी में 'आँख' शब्द का स्त्रीलिंग में प्रयोग किया जाता है। . 'जैन दर्शन ने आत्मा के जिस स्वरूप का प्रतिपादन शताब्दियों पूर्व किया था, अद्यपर्यंत वही स्वरूप उसी रूप से स्थापित है। उत्तरवर्ती तार्किकप्रतिभासंपन्न दार्शनिक आचार्यों ने उस स्वरूप को अपनी प्रखर तर्क शैली से सिद्ध किया, परंतु उस स्वरूप में सामान्य परिवर्तन भी नहीं आने दिया। _ 'आत्मवाद या आत्मा भारतीय दर्शन की आत्मा ही है' - ऐसा कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी; क्योंकि भारतीय दार्शनिकों के संपूर्ण चिंतन का केन्दबिन्दु आत्मा ही रहा है; और सारा दर्शन इसी के इर्द-गिर्द घूमता-सा प्रतीत होता है।
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