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प्रश्न पर भी अनेक अवधारणाएँ बनीं। आगे के कुछ अनुच्छेदों में द्रव्यों एवं सृष्टि के विषय में भिन्न-भिन्न दार्शनिक मतों को प्रस्तुत किया जा रहा है ।
उपनिषद् के अनुसार द्रव्य एवं सृष्टि:
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सर्वप्रथम यहाँ असत् था, इस असत् से सत् की उत्पत्ति हुई ।५७ कुछ ऋषियों के मत में असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती । सर्वप्रथम सत् ही था, उसने सोचा “मैं अनेक होऊं” और सत् की इसी कल्पना से सृष्टि का निर्माण हुआ । ५८ उपनिषद् आत्मा और ब्रह्म को अभिन्न मानता है । "यह सब ब्रह्म ही है और आत्मा ही ब्रह्म है । ५९ चंद्रमा और सूर्य ब्रह्मा की आँखें, अंतरिक्ष और दिशाएँ श्रोत्र और वायु इसका उच्छ्वास है । ६०
तैत्तिरीय उपनिषद् में ब्रह्म की व्याख्या इस प्रकार बतायी गयी है - "वह जिससे समस्त भूतों की उत्पत्ति हुई और उत्पन्न होने के पश्चात् जीवन को धारण करते हैं, मृत्यु के बाद वे सारे ब्रह्म में ही समा जाते हैं । १ एक मत यह भी है कि जिस प्रकार बढ़ई मकान आदि बनाता है, ब्रह्मा ने भी उसी प्रकार से सृष्टि बनायी है ।
यहाँ प्रश्न यह होता है कि जब ब्रह्मा ने संसार बनाया तो बनाने की सामग्री उसे कहाँ से उपलब्ध हुई? इसका उत्तर आगे जाकर यह दिया गया कि ब्रह्म ही वह वृक्ष एवं कष्ठ है जिससे द्युलोक एवं पृथ्वी का निर्माण हुआ । ६२
इस प्रकार सृष्टि के संबन्ध में उपनिषदों में स्पष्ट विचारधारा मिलती हैं कि संपूर्ण चेतन-अचेतन ईश्वर द्वारा सर्जित है एवं व्यय या विनाश होकर उसी में विलीन हो जाता है ।
५७. असत: सदजायत । - छान्दोग्य उपनिषद् ६.२.१
५८. कुतस्तु खलु सौम्य एवं स्यादिति होवाच कथमसतः सज्जायेतेति । सत्त्वेव सौम्येदमणु आसीत् । एकमेवाद्वितीयम् । तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति । - छान्दोग्योपनिषद् ६.२.२
५९. सर्वं हि एतद् ब्रह्म अयमात्या ब्रह्म । - माण्डूक्योनिपनिषद्
६०. मुण्डोकपनिषद्, १.१
६१. तैत्तिरीयोपनिषद् ३.१६; तैत्तिरीय ब्राह्मण, १०.३१.७
६२. तैत्तिरीय ब्राह्मण
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