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________________ अप्रच्युत, अनुत्पन्न, स्थिर और एक रूप को नित्य कहते हैं। यदि आत्मा अपनी कारण सामग्री से सुख को छोड़कर दुःख का उपभोग करने लगे तो अपने नित्य और एक स्वभाव के त्याग के कारण आत्मा को अनित्य मानना पड़ेगा। अतः एकान्तवाद में अर्थक्रिया संभव ही नहीं है। इसी प्रकार क्षणिकवाद में भी अर्थ क्रिया संभव नहीं, क्योंकि वहाँ हिंसा का संकल्प करने वाला अलग है, हिंसा करने वाला कोई दूसरा है और हिंसा कर्म जनित कर्मबन्ध का फल भोगने वाला कोई तीसरा ही है।७९ ___ हम हिंसक किसे कहें? क्योंकि क्षणिकवाद के अनुसार हिंसा करने वाला हिंसक नहीं हो सकता। उसका अस्तित्व तो दूसरे क्षण ही विलीन हो जाता है। इस प्रकार पदार्थों का 'निरन्वय विनाश' मानने से एक को कर्ता और दूसरे को भोक्ता मानना पड़ेगा। इसका समाधान क्षणिकवादियों ने इस प्रकार किया है"जिस प्रकार कपास के बीज में लाल रंग लगाने से बीज का रंग भी लाल हो जाता है, उसी प्रकार अवस्था संतान में कर्मवासना का फल मिलता है।" ८० परन्तु जैन दर्शन इस मान्यता का खंडन करता है। एक क्षणवर्ती वस्तु को दूसरे क्षण से जोड़ने वाला कोई तत्व नहीं है। दोनों क्षणों को परस्पर जोड़ने वाले के अभाव में दोनों का संबन्ध संभव नहीं है। दोनों को जोड़ने वाली कड़ी चाहिये। जैन दर्शन में बौद्धों जैसा उत्पाद और विनाश भी है और साथ ही दोनों को जोड़ने वाली कड़ी जो ध्रुव कहलाती है, भी विद्यमान है। ___ जैन दर्शन के 'ध्रुव' की कूटस्थ नित्य ब्रह्मवादियों के नित्य से एवं बौद्धों के अनित्य से उत्पाद व व्यय की समानता है, परन्तु यह समानता कथंचित् ही है सर्वथा नहीं, क्योंकि जैन दर्शन पदार्थ को कथंचित् नित्य एवं कथंचित् अनित्य मानता है। जैन दर्शन के अनुसार दीपक से लेकर आकाश तक के सारे पदार्थ नित्यानित्य स्वभाव युक्त हैं। ७८. स्याद्वाद. २७. २३६ ७९. हिनस्त्यनभिसंधात्-चित्तं बद्धं न मुच्यते- आ. मी. ३.५१ ८०. यस्मिन्नेव हि सन्ताने-रक्तता यथा । उद्धृतेयम्-स्याद्वाद मंजरी २७. २३८ ८१. अन्ययोगव्य. ५. ३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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