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________________ सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन से पहले यह माना जाता था कि द्रव्य को शक्ति रूप में और शक्ति को द्रव्य रूप में नहीं बदला जा सकता, परन्तु आइंस्टीन ने इस धारणा को खंडित कर दिया । यह माना जाने लगा कि द्रव्य और शक्ति भिन्न-भिन्न नहीं है; एक ही वस्तु के रूपान्तरण हैं । इस सिद्धान्त के आधार पर एक पौंड कोयले से शक्ति के रूप में दो किलोवाट की विद्युत शक्ति प्राप्त की जा सकती है। चूंकि वैज्ञानिक परीक्षण पुद्गल तक ही सीमित हैं, अतः पुद्गल की शक्ति को मापा जाता है, परन्तु द्रव्य चाहे पुद्गल हो या जीव, सभी अनन्तशक्तिं संपन्न है और इसी कारण उनका त्रैकालिक अस्तित्व है । परिणमन का अर्थ है- अवस्थान्तर होना । कोई व्यक्ति एक स्थान से प्रयाण कर अन्य स्थान पर पहुँचा। स्थान का परिवर्तन तो हुआ, परन्तु व्यक्ति में परिवर्तन नहीं हुआ । द्रव्य का परिणमन भी ऐसा ही है। सर्वथा उत्पाद या विनाश न होकर मात्र अवस्था का परिवर्तन है । ७४ कूटस्थ नित्यवादियों की मान्यता है कि पदार्थ सर्वथा नित्य होते हैं, क्योंकि वे सत् हैं "सर्वं नित्यं सत्त्वात् ” । उनके अनुसार क्षणिक पदार्थों में अर्थक्रिया नहीं हो सकती, क्योंकि क्षणिक पदार्थ एक क्षण के बाद दूसरे क्षण में स्थिर नहीं रहते । जबकि बौद्धों की मान्यता है कि "संपूर्ण पदार्थ क्षणिक हैं क्योंकि वे सत् हैं”“सर्वं क्षणिकं सत्त्वात् ।" नित्य पक्ष में अर्थक्रिया संभव नहीं है । अर्थक्रिया के लिये पूर्व स्वभाव का विनाश और उत्तरकालीन स्वभाव का पदार्थ के प्रयोजन भूत कार्य को धारण करना आवश्यक है जो कि नित्य तत्त्व में संभव नहीं हैं । ७५ जैन दर्शन इन दोनों मान्यताओं का खंडन करता है । उसके अनुसार “जो दोष नित्य एकान्तवाद में है, वही दोष सर्वथा क्षणिकवाद में है । ७६ सर्वथा नित्य एकांतवाद में सुख, दुःख, पुण्य, पाप, बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था नहीं बन सकती । ७७ ७४. परिणमास्तद्विदामिष्टः उद्धृतेयम् - स्याद्वाद मंजरी २३९ ७५. स्याद्वादमं जरी २६.२३३.३४. २६ ७६. अन्ययोगव्य. ७७. नैकांतवादे सुखदुःखभोगे..... बंधमोक्षौ - अन्ययो. २७ Jain Education International ३६ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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