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उपनिषद् और आत्मस्वरूप की विभिन्नता :
आत्म स्वरूप के निर्धारण में उपनिषद् निरन्तर प्रगति करता प्रतीत होता है, क्योंकि विभिन्न उपनिषदों में आत्मा के स्वरूप की भिन्नता स्पष्ट परिलक्षित होती है। देहात्मवाद :. उपनिषद् के पुरस्कर्ता ऋषियों के मन में जब यह चिंतन चला कि बाह्य विश्व को गौण कर जिस चैतन्य की अनुभूति होती है, वह क्या है? इस संबन्ध में उपनिषद् में एक आख्यान आता है कि असुरों में वैरोचन और देंवों में इन्द्र
आत्मविद्या की शिक्षा लेने प्रजापति के पास गये। तब प्रजापति ने बर्तन में पानी डालकर उसमें उनका प्रतिबिम्ब दिखाकर कहा- यही आत्मा है। इन्द्र तो देहात्मस्वरूप से संतुष्ट नहीं हुए पर वैरोचन संतुष्ट हो गये।५९ ...
जैनागमों में द्वितीय अंग श्री सूत्रकृतांग में इसी को “तज्जीव तच्छरीरवाद" कहा गया है ।५२ __भगवान् महावीर के तीसरे गणधर वायुभूति के मन में भी यही शंका थी कि “जीव और शरीर भिन्न हैं या एक ही।"५३ ।।
राजा प्रदेशी भी आत्मा को शरीर की तरह इन्द्रियग्राह्य मानता था और इसी कारण उसका आत्मशोधन का प्रयास निष्फल रहा।५४ प्राणात्मवादः
इन्द्र को इस देहात्मवाद के स्वरूप से संतुष्टि नहीं हुई । इन्द्र की तरह औरों के मस्तिष्क में भी यह प्रश्न उभरा होगा कि अगर शरीर ही आत्मा है तो मृत्यु के समय भी शरीर तो विद्यमान रहता है फिर भी शरीर की क्रियाएँ अवरुद्ध क्यों हो जाती हैं, निद्रावस्था में भी श्वासोच्छ्वास की प्रक्रिया सतत् रहती है, यह क्या है, तब उन्होंने अनुभव के आधार पर प्राण सत्ता को ही समस्त प्रवृत्ति का कारण माना।५५ ५१. छान्दोग्योपनिषद् ८.८४ ५२. सुयगडांग ६.४८ ५३. गणधरवाद १६४९ ५४. राज प्रश्नीय २४४.२६६ ५५. तैतिरीय उपनि. २.२.३
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