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________________ यहाँ यह प्रश्न ही सकता हैं कि आकाश उत्पन्न नहीं होता, अतः खरविषाण की तरह उसका अभाव ही होना चाहिये । इसका समाधान यह है कि आकाश को अनुत्पन्न कहना असिद्ध है, क्योंकि द्रव्यार्थिक की गौणता और पर्यायार्थिक की मुख्यता होने पर अगुरुलघु गुणों की वृद्धि और हानि के निमित्त से स्वप्रत्यय उत्पाद-व्यय और अवगाहक जीवपुद्गलों के परिणमन के अनुसार परप्रत्यय आकाश में उत्पाद-व्यय होते रहते हैं। जैसे कि अन्तिम समय में असर्वज्ञता का विनाश होकर किसी मनुष्य की सर्वज्ञता उत्पन्न हुई तोजो आकाश पहले अनुपलभ्य था वही बाद में उपलभ्य हो गया। अतः आकाश भी अनुपलभ्यत्वेन विनष्ट होकर उपलभ्यत्वेन उत्पन्न हुआ। इस तरह उसमें परप्रत्यय भी उत्पाद-विनाश करते रहते हैं।५० काल द्रव्य : जैनदर्शन षड्द्रव्यसिद्धान्त मानता है। काल चौथा अजीव द्रव्य है जिसका विवेचन यहाँ हम करने जा रहे हैं। जैनदर्शन की श्वेताम्बर और दिगम्बर-दोनों ही परम्पराओं ने कालद्रव्य को स्वीकार तो किया है, परन्तु कालद्रव्य की स्वतन्त्रता पर मतभेद है। जैनदर्शन में दो प्रकार की विचारधारा काल के संबन्ध में पायी जाती है, कुछ आचार्य काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में मानते हैं और कुछ आचार्य काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार नहीं करते । इन दो विचारधाराओं के बावजूद इसमें सभी एकमत हैं कि 'काल' द्रव्य अवश्य है। ___ प्रथम विचारधारा के समर्थक कुन्दकुन्दाचार्य, पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्दी, नेमीचन्द्र एवं आगमों में भगवतीसूत्र और उत्तराध्ययनसूत्र हैं, तो द्वितीय विचारधारा के समर्थक आचार्यों में उमास्वाति, सिद्धसेन दिवाकर, जिनभद्रगणि आदि और आगमग्रन्थों में ठाणांग और जीवाभिगम हैं। इन दोनों विचारधाराओं का एवं काल के स्वरूप का हम विवेचन करेंगे। ___ठाणांग के टिप्पण के ८ अनुसार काल वास्तविक द्रव्य नहीं है, वह औपचारिक द्रव्य है । वस्तुतः वह जीव और अजीव का पर्याय है। इसलिए उसे ५७. त.रा.वा. ५.१८.१०.४६७ ५८. ठाणांग टिप्पण नं.१२२ पृ. १४० १९२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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