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________________ रतनामालाश्री जी महाराज के चरणों में विनम्रभावेन वन्दनाएँ अर्पित करती हूँ जिनके सान्निध्य में मैं अपनी संयम और स्वाध्याय की यात्रा निर्विघ्न चला रही हूँ। ... अन्त में मैं अपनी सुयोग्य प्रतिभाशालिनी सुशिक्षित आर्यावर्ग साध्वी शासनप्रभा M.A., स्वर्ण पदक प्राप्त साध्वी नीलांजना M.A., प्रज्ञांजना, दीप्तिप्रज्ञा, नीतिप्रज्ञा एवं विभांजना की भी कतज्ञ हैं जिन्होंने मेरे अध्ययन के लिये शान्त और नीरव परिवेश के निर्माण में अपना संपूर्ण योगदान दिया। अपनी समस्त संवेदनाओं को समाप्त कर मेरे अध्ययन की भूमिका का निर्माण किया, समस्त उत्तरदायित्वों से मुक्त कर मुझे निश्चित किया। शोध-प्रबन्ध की प्रेस कॉपी साध्वी शासनप्रभा एवं नीलांजना ने तैयार की है। उन्हें मेरा हार्दिक आत्मीय मंगलमय आशीर्वाद है। वे . निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर होकर अक्षय आनन्द को उपलब्ध करें। प्रस्तुत ग्रन्थ का लेखन मात्र उपाधि हेतु नहीं किया गया है, अपितु इसका मुख्य उद्देश्य ज्ञान की अपूर्व सम्पदा की प्राप्ति रहा है। इन षड्द्रव्यों का अध्ययन कर अपनी आत्मचेतना को शुद्ध और मुक्त बनाऊँ, इसी कामना के साथ मेरा यह प्रयास हुआ है। इस मंजिल की प्राप्ति में प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष सहयोगी वृन्द के प्रति हार्दिक शुभकामनाएँ व्यक्त करती हुई विद्वजनों की निष्पक्ष आलोचना सादर आमन्त्रित करती हूँ। परमात्मा महावीर की अमृतवाणी को अगणित वंदना । सादर विurem साध्वी विद्युत्प्रभा श्री XVI Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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