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________________ आत्मसाधक श्रीमद् राजचन्द्र के शब्दों में द्रव्य की नित्यता इस प्रकार स्पष्ट हुई है-“संपूर्ण रूप से द्रव्य का नाश तो होता ही नहीं, अगर द्रव्य का ही नाश हो जायेगा तो हे साधक! तू खोज कि वह किसमें मिश्रित होगा, अर्थात् तुझे समझ में आ ही जायेगा क्योंकि 'चेतन' चेतनानन्तर नहीं होता।”६२ ___ “बचपन, युवा एवं प्रौढ़ अवस्था में एक ही आत्मा द्रव्य है मात्र अवस्थागत परिवर्तन से आत्मा नहीं बदलता, वैसे ही पर्याय परिणमन तो होता है पर द्रव्य नित्य (अनाशवान्) ही है।”६३ ।। द्रव्य के त्रैकालिक होने में ‘अनुत्पत्ति' कारण है, क्योंकि जिसका उत्पाद होता है, विनाश भी उसी का होता है। द्रव्य तो न किसी का उत्पाद है और न उसका व्यय होता है।६४ वही जन्मता और वही मरता है अर्थात मात्र उसमें पर्याय परिणमन होता है, उसका सर्वथा नाश नहीं होता। इस प्रकार का एकत्व तभी संभव है जब कोई उत्पत्ति और व्यय होते हुए भी ध्रुव हो । - उत्पत्ति और विनाश में नित्य रहने वाला एकत्व भी दो प्रकार का है, मुख्य और उपचरित । आत्मा आदि में तो मुख्य एकत्व होता है, जैसे-जो आत्मा नरक में था वही अब मनुष्य है; जो आत्मा बचपन में था, वही जवानी और बुढ़ापे में हैइत्यादि में मुख्य एकत्व ज्ञान है और सादृश्य युक्त वस्तु में उपचरित एकत्व होता है, जैसे-काटने के बाद पुनः उत्पन्न हुए नख और केश।६६ . . परिणमन अस्तित्व की अनिवार्यता है:- . परिणमन करना अस्तित्व का स्वभाव है। जिससे प्रतिक्षण परिणमन की क्षमता नहीं होती, वह अपनी सत्ता स्थायी नहीं रखा सकता। यह अस्तित्वगत परिणमनशीलता आरोपित नहीं है। द्रव्य का स्वयं का स्वभाव है कि वह उत्पाद६२. क्यारे कोई.....केमां भले तपास-आत्मसिद्धि ७०. ६३. आत्मा द्रव्ये नित्य एकने थाय- आ. सि. ६८. ६४. आ. सि. ६६. ६५. सो चेव जादि-प.का. १८ ६६. द्विविधं ह्येकत्वं मुरूयमुपचारित-सादृश्ये तदुपचिरतमिति-अष्टस. १६१. ३४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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