________________
Tirthankara. There is no doubt that Jainism prevailed even before Vardhamana or Parshvanath. The Yajurveda menitons the names of three Tirthankaras-Rishabha, Ajitnath and Aristanemi. The Bhagavata Puran endorses the view that Rishabha was the founder of Jainism-Indian Philosophy, Vol. I.P. 287
इन अनुसंधानपरक तत्थों द्वारा यह प्रमाणित होने के कारण आज विश्व के क्षितिज पर जैन दर्शन की प्राचीनता में कोई संदेह नहीं करता । साथ ही जैन दर्शन विज्ञानसम्मत नियम निर्धारण के कारण विश्वधर्म बनने की क्षमता से ओतप्रोत है। जैन दर्शन की समस्त धारणाएँ वैज्ञानिक हैं, इसे हमे अगले अध्यायों में विचलित करेंगे।
जैन दर्शन में स्वीकृत द्रव्यः- .
दर्शन आदि की आंशिक परन्तु अनिवार्य भूमिका स्पष्ट करने के पश्चात् हम अपने मूल विषय पर दृष्टिपात करते हैं। यहाँ 'विवेच्य है- द्रव्य एवं उसका स्वरूप' । सर्वप्रथम हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि जैन दर्शन में 'द्रव्य' शब्द किन-किन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है।
प्राकृत का ‘दव्व', पालि का 'दब्ब' और संस्कृत का द्रव्य' शब्द अत्यन्त प्राचीन है । यद्यपि लोकव्यवहार में तथा काव्य, व्याकरण, दर्शन आदि शास्त्रों में भिन्न-भिन्न सन्दर्भो में 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग प्राचीन एवं बहुत रूढ़ जान पढ़ता है तथापि.जैन परिपाटी में 'द्रव्य' शब्द अन्य शास्त्रों की अपेक्षा अनेक अर्थों में भिन्न भी प्रतीत होता है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव, इन निक्षेपों के प्रसंग में ३८; द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के प्रसंग में ३९; द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नय के विषय में ४०; द्रव्याचार्य एवं भावाचार्य में एवं द्रव्यकर्म और भावकर्म के प्रसंग में आने वाला द्रव्य शब्द विशिष्ट अर्थयुक्त है। .३७. पं. सुखलालजी : दर्शन और चिंतन, पृ. १४३ ३८. नाम-स्थापना-द्रव्य-भावतस्तन्नासः।-तत्त्वार्थसूत्र १.५ ३९. दव्वाइं, खेतओ..... भावओ वण्णमंताई। - भ. २.१.४ ४०. द्रव्यास्तिकं.... पर्यायास्तिकम् । - तत्त्वार्थभाष्य, ५.३१ ४१. पंचाशक-६ ४२. द्रव्यकर्मण एवं कर्ता....भावकर्मण । प्र.सा.ता.वृ. १२२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org