________________
जैन दर्शन के अनुसार लक्षणरूप भेद होने पर भी वस्तुस्वरूप से गुण और गुणी अभिन्न हैं । ५ यद्यपि ये आपस में विशेषणविशेष्यभाव से संबन्धित हैं, फिर भी दोनों अभिन्न हैं । ६ द्रव्य में गुण-गुणी का भेद प्रादेशिक नहीं है, अपितु अतद्भाविक है ।" संज्ञा की अपेक्षा भेद अवश्य प्रतीत होता है, परन्तु सत्ता की अपेक्षा दोनों में अभेद है ।
४८
कथंचित् भेदाभेद के कारण ही 'द्रव्य' इस संज्ञा की सिद्धि हो पाती है । ४९ गुण और द्रव्य परस्पर अविभक्त रूप से रहते हैं, अतः अभेद है तथा संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा भेद है ।.
जैनदर्शन में भेदाभेद की स्वीकृति से विरोधों की समाप्ति स्वतः ही हो जाती है । हमें वस्तु के स्वरूप को कथंचित् स्वीकार करना चाहिये । अद्वैत एकान्त को मानने से उसमें कारकों (कर्त्ता, कर्म, करण) का जो प्रत्यक्षसिद्ध भेद मानते हैं, उसमें विरोध आता है, क्योंकि एक वस्तु स्वयं अपने से उत्पन्न नहीं होती । ५°
उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य में काल की भिन्नता एवं अभिन्नता:
द्रव्य का लक्षण उत्पाद-व्यय - ध्रौव्य युक्त है । वस्तु के इन लक्षणों में काल की भिन्नता भिन्ना भी है और अभिन्नता भी । इन्हें द्रव्य से भिन्न भी कहा जा सकता है और अभिन्न भी, " क्योंकि जो सिकुड़ने का समय है वह फैलने का नहीं और एक अपेक्षा से सिकुड़ने के और फैलने के समय में भिन्नता भी नहीं ।" जिस
४४. अद्वैतं न बिना द्वैतादहेतुरिव..
. हेतुना. - आ.मी. २.२७.
४५. द्रव्यं च लक्ष्यलक्षण भावादिभ्य... भूतमेवेति मंतव्यम्. - पं. का. टी . ९. ४६. १.१.१४.२४२ (राजवार्तिक ?)
४७. प्र. सा.त. प्र.वृ. ९८.
४८. द्रव्यगुणानामध्यादेशवशात्..... मंतव्यम् - पं. का.टी. १३. ४९. कथंचिद् भेदाभेदोपपत्तेस्तद्व्यपदेशासिद्धिः ५.२.५.५२९ ५०. अद्वैतेकांत....स्वस्मात् प्रजायते. - आ.मी. २. २४ ५१. सन्मति तर्क ३.३६
५२. जो आऊंचण कालो.... कालंतरणत्थि .
-
Jain Education International
५०
स.त. ३.३६
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org