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पुद्रल । १०६
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इनको पुनः अपेक्षा से २३ वर्गों में भी रखा जाता है " इन २३ भेदों में मुख्य आठ भेद हैं । इन भेदों को वर्गणा भी कहते हैं- औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण, श्वास, वचन और मन ।
१. औदारिकवर्गणाः- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति - इनके द्वारा औदारिक शरीर का निर्माण होता है ।
२. वैक्रिय वर्गणाः- वैक्रिय का संस्कृत पर्याय 'वैकुर्विक' भी होता है। इसका अर्थ है विविध क्रिया । विशिष्ट क्रिया को करने में सक्षम विक्रिया है । उस. विक्रिया को करने वाला वैक्रिय शरीर है। इस शरीर के पुद्गल मृत्यु के पश्चात् कपूर की तरह उड़ जाते हैं ।
३. आहारकवर्गणाः - विशिष्ट योगशक्ति संपन्न चौदह पूर्वधारी मुनि किसी विशिष्ट प्रयोजन विशेष से जिस शरीर की संरचना करते हैं, उसमें संहत पुद्गल राशि को आहार वर्गणा कहते हैं और उस शरीर को आहारक शरीर कहा जाता है ।
४. तैजस वर्गणाः- जो दीप्ति का कारण है वह तैजस वर्गणा है, और जिस तैजस वर्गणा से निष्पन्न शरीर में आहार पचाने की क्षमता या सामर्थ्य होती है, वह तैजस शरीर है । इस शरीर के अंगोपांग नहीं होते । यह शरीर आहारक शरीर से अधिक सूक्ष्म होता है ।
५. कार्मण वर्गणाः- कर्म के रूप में परिणत होकर जीव से बद्ध होने योग्य पुद्गल को कार्मण वर्गणा कहते हैं । ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मपुलों के समूह कार्मण शरीर बनता है । यह कर्मसमूह ही अन्य शरीरों के निर्माणका निमित्तकारण है। तैजस और कार्मण शरीर संसारी आत्मा के साथ सदा रहता है। तेरहवें गुणस्थान तक कर्मप्रकृतियों का सद्भाव रहता है। मुक्ति में ही इनका आत्यन्तिक अभाव होता है। इन दोनों शरीरों के छूटते ही आत्मा शुद्ध बन जाती है । १०८
१०६. ठाणांग २.२३२
१०७. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) ५९३.९४
१०८. प्रज्ञापना १२.९०१
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