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कोई सिरा नहीं है।
द्रव्य की सत्ता को समझने के लिए उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की त्रयी को गहराई में उतर कर समझना बहुत जरूरी है। द्रव्य ‘है', उसका ‘था' और 'गा' पर्यटक है। 'है' ही रहता है, 'गा' और 'था' उखड़ जाते हैं। द्रव्य की यह सत्यकथा अनादि है। उत्पाद और व्यय की प्रक्रिया को पर्यायान्तरण में-से समझना चाहिये।। ... आत्मा है; शरीर ‘था' 'गा' 'है' तीनों है। 'था' वह हुआ, 'गा' वह होगा, 'है' वह है; किन्तु आत्मा के साथ ऐसा नहीं है। वहाँ सिर्फ 'है' है। शुद्धावस्था में यद्यपि 'गा' 'था' 'है' की त्रयी है तथापि वह शुद्धावस्थापरक है। द्रव्य के इस मौलिक व्याकरण को जाने बगैर लोक-रचना के रहस्य को जानना संभव नहीं है। __ जैनधर्म/दर्शन का मुख्य लक्ष्य स्वभावोपलब्धि है। भेद-विज्ञान इसका अचूक माध्यम है। इसके द्वारा हम द्रव्यों की स्वाधीन सत्ताओं का बोधमृत पाते, पीते हैं। आत्मा आत्मा है, देह देह है। आत्मा न कभी देह हुआ है, न था, न होगा। इसी तरह देह न कभी आत्मा था, न होगा, न है । इस पार्थक्य को हम भेद-विज्ञान में-से होगुजर कर ही जान पाते हैं।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध साध्वीजी की ज्ञान-साधना की श्रमसाध्य परिणति है। उन्होंने तुलनात्मक अध्ययन द्वारा द्रव्यों की विस्तृत/सर्वांग विवेचना की है। मुझे विश्वास है इसे व्यापक रूप में पढ़ा जाएगा।
- साध्वीजी से निवेदन है कि वे अपनी अध्ययन-अनुसंधान-वृत्ति को अनवरत रखें और यदि संभव हो तो इसके एक सरल जेबी संस्करण से सामान्य जन को भी उपकृत करें। क्या हम गंभीर अध्ययनों को कॉमन जैन तक पहुँचाने को तुरन्त कोई उपाय नहीं करेंगे? मेरी समझ में यदि हम प्रयत्न करें तो जो ज्ञानामृत साधु-जन, विद्वज्जन खोजते-पाते हैं, उसमें एक सामान्य श्रावक की सहभागिता अवश्य बना सकते हैं ? इन्दौर, म.प्र.
-डॉ. नेमीचन्द जैन १४ नवम्बर, १९९४
संपादक 'तीर्थंकर' 'शाकाहार-क्रान्ति'
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