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सत्ता सर्वत्र समान है, अतः उसके इतने प्रदेशों तक पुद्गल और जीवों का गमन है, आगे नहीं। यह नियन्त्रण अखण्ड आकाश द्रव्य नहीं कर सकता क्योंकि उसमें प्रदेश-भेद होने पर भी स्वभाव भेद नहीं है।
जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्य भी गति और स्थिति में सहायक नहीं बन सकते; क्योंकि वे तो स्वयं गति और स्थिति करने वाले हैं। काल मात्र परिवर्तन स्वभावी है। अतः धर्म और अधर्मद्रव्य को लोक और परलोक के मध्य विभाजक तत्त्व की मान्यता दी गयी और उसे गति-स्थिति में उदासीन सहायक द्रव्य के रूप में स्थापित किया गया। 'शब्द' आकाश का विशेष गुण नहीं पुल की पर्याय है:
समस्त जीव-अजीव राशि का आश्रयदाता आकाश तत्त्व है। जैनदर्शन ने आकाश का गुण अवगाह माना है जबकि न्याय वैशेषिक ने शब्द को आकाश का गुण माना है, परन्तु शब्द पौगलिक इन्द्रियों से गृहीत है, पुद्गलों से टकराता है, स्वयं पुद्गलों को रोकता है और पुद्गलों से भरा जाता है, अत: वह पौद्रलिक ही हो सकता है, इसलिए न्यायवैशेषिक की यह मान्यता कि शब्द आकाश का गुण हैं धराशायि हो जाती है।
जैनदर्शन 'शब्द' को पुद्गल की भाषावर्गणा मानता है। शब्द के आश्रित द्रव्य परमाणु इन्द्रिय का विषय होने से वायु की अनुकूलता पर दूर स्थान पर स्थित श्रोता तक पहुँच जाते हैं और वायु की प्रतिकूलता पर समीप बैठे श्रोता तक भी नहीं जा पाते। अतः जिस प्रकार ‘गन्ध' इन्द्रिय का विषय होने के कारण पौद्गलिक है, वैसे ही 'शब्द' भी इन्द्रिय का विषय होने से पौगलिक है। आज विज्ञान के क्षेत्र में भी शब्द का पौद्गलिक स्वरूप सिद्ध हो चुका है। टी.वी., टेलीफोन, रेडियो आदि यन्त्रों के माध्यम से शब्दों की तरंगों को पकड़ना जैनदर्शन के 'शब्द' की पुद्गलत्ववादी व्याख्या को ही मान्यता देता है। 'शब्द' आकाश का गुण इसलिए भी नहीं हो सकता कि आकाश तो नित्य है और शब्द अनित्य। यद्यपि यह कहा जाता है कि रामायण और महाभारत कालीन शब्द भी विज्ञान द्वारा कभी न कभी प्रकट किया जायेगा, परन्तु यह भी शब्दनित्यत्ववाद के प्रकाश में ही सोचा जा सकता है।
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