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________________ उसका व्यवहार पृथक् हो जाता है। परिणाम का तात्पर्य है- अपनी मौलिक सत्ता को न छोड़ते हए पूर्वपर्याय का विनाश और उत्तरपर्याय का उत्पन्न होना। परिणाम दो प्रकार का होता है- एक अनादि, दूसरा आदिमान् । लोक की रचना, सुमेरुपर्वत आदि के आकार अनादि परिणाम है । आदिमान् परिणाम दो प्रकार का है- एक प्रयोगजन्य और दूसरा स्वाभाविक । चेतन द्रव्य के औपशमिकादिभाव जो मात्र कर्मों के उपशम आदि की अपेक्षा से होते हैं; जिनमें पुरुषप्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती, वे स्वाभाविक परिणाम कहलाते हैं। ज्ञान, शील, भावना आदि गुरु के उपदेश से होते हैं। अतः ये प्रयोगज परिणाम हैं। इसी प्रकार मिट्टी आदि में कुम्हार द्वारा होने वाला अचेतन परिणमन प्रयोगज अचेतन परिणमन है । इन्द्रधनुष आदि परिणमन स्वाभाविक अचेतन परिणमन क्रिया का स्वरूप : ___ बाह्य और आभ्यन्तर निमित्तों से द्रव्य में होने वाला परिस्पन्दात्मक परिणमन 'क्रिया' है । वह दो प्रकार की है- प्रायोगिक और स्वाभविक । बैलगाड़ी आदि में प्रायोगिक तथा बादल आदि में स्वाभाविक क्रिया होती है।७६ परत्व तथा अपरत्व का स्वरूपः परत्व और अपरत्व क्षेत्रकृत भी हैं औ गुणकृत भी। क्षेत्र की अपेक्षा 'पर' का अर्थ दूरवर्ती एवं 'अपर' का समीपवर्ती कहां जाता है । गुण की अपेक्षा से अहिंसा आदि प्रशस्त गुणों के कारण धर्म को 'पर', और अधर्म को 'अपर' कहा जाता है। इसी प्रकार कालकृत परत्व-अपरत्व भी होता है। जैसे सौ साल का वृद्ध 'पर' और सोलह साल का युवक 'अपर' है। इन तीन प्रकार के परत्वापरत्व में से कालकृत परत्वापरत्व ही लिया जाना चाहिये। तर्कभाषा में भी परत्वापरत्व की चर्चा उपलब्ध होती है। इसमें परत्व और अपरत्व को दो प्रकार से माना गया है- कालिक परत्व और कालिक अपरत्व ७५. त.वा. ५.२२.१०.४७७.७८ ७६. रा.वा. ५.२२,१९.४८१ एवं स.सि. ५.२२.५६९ ७७. रा.वा. ५.२२ २२.४८१ ७८. कालोपकारणात् कालकृतेऽय परत्वापत्वे गृहत्वेते।- त.रा.वा. ५.२२.२२.४८१ १९६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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