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वर्तना का स्वरूप :___ “प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक पर्याय में प्रति समय जो स्वसत्ता की अनुभूति करता है, उसे वर्तना कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का अनुभव करता है। धर्मादि द्रव्य अपने अनादि या आदिमान् पर्यायों में उत्पादव्यय-ध्रौव्य रूप से परिणत होते रहते हैं। यही स्वसत्तानुभूत वर्तना है। सादृश्योपचार से प्रतिक्षण ‘वर्तना' - ऐसा अनुगत व्यवहार होने से यद्यपि वह एक कही जाती है, पर वस्तुतः प्रत्येक द्रव्य की अपनी-अपनी वर्तना अलग होती है।७१
वर्तना का अनुमान हम इस प्रकार से लगा सकते हैं- जैसे चावल को पकाने के लिए बर्तन में डाला, वह आधा घण्टे में पक गया तो यह नहीं समझना चाहिये कि २९ मिनिट तक तो वह ज्यों का त्यों रहा, मात्र अन्तिम समय में पक कर भात बन गया। उसमें प्रथम समय से ही सूक्ष्मरूप से पाकक्रिया प्रारम्भ थी, यदि प्रथम समय में पाक न हुआ होता तो दूसरे तीसरे क्षणों में संभव ही नहीं हो सकता था,
और इस तरह पाक का अभाव हो जाता। यह वर्तनालक्षणयुक्त काल परमार्थ काल है।७३ ..
द्रव्य की पर्याय बदलती है और उसे बदलाने वाला काल है। यदि ऐसा है तो काल क्रियावान् द्रव्य हो जाता है, जैसे शिष्य पढ़ता है, उपाध्याय पढ़ाते हैं, यहाँ उपाध्याय क्रियावान् द्रव्य है। पूज्यपाद इस आशंका का समाधान करते हुए कहते हैं- यह कोई दोष नहीं है क्योंकि निमित्तमात्र में हेतु कर्त्तारूप कथन (व्यपदेश) देखा जात है “जैसे कुंडे को अग्नि पकाती है" यहाँ कुंडे की अग्नि निमित्तमात्र है, उसी प्रकार काल भी हेतुकर्ता है। परिणाम का स्वरूप :
- अपनी स्वद्रव्यत्व जाति को न छोड़ते हुए द्रव्य में जो स्वाभाविक या प्रायोगिक परिवर्तन होता है, उसे परिणाम कहते हैं । द्रव्यत्व जाति यद्यपि द्रव्य से भिन्न नहीं है, फिर भी द्रव्यार्थिक की अविवक्षा और पर्यायार्थिक की प्रधानता में
७१. त.रा.वा. ५.२२.४.४७७ ७२. त.रा.वा. ५.२२.५.४७७ ७३: परमार्थकालो वर्तनालक्षणः -स.सि. ५.२२.५६९ ७४. स.सि. ५.२२.५६९
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