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________________ सर्वथा भेद मानना अनुपयुक्त है । ३३ द्रव्य गुण और पर्याय में एकान्त अभेद भी नहीं है: गुण और गुणी में सर्वथा अभेद मानने पर या तो गुण रहेंगे या गुणीं, तब दोनों का व्यपदेश संभव नहीं होगा। अकेले गुणी के या गुण के रहने पर यदि गुणी रहता है तो गुण का अभाव होने के कारण वह निःस्वभावी होकर अपना भी विनाश कर बैठेगा, और यदि गुण रहता है तो वह निराश्रय होकर कहाँ आश्रय लेगा ?३४ ब्रह्माद्वैतवादी संपूर्णतः अभेद को ही स्वीकार करते हैं । उपनिषदों में ऐसे अनेकों वाक्य आते हैं जो मात्र 'ब्रह्म' की ही सत्ता को स्थापित करते हैं । ५ चेतन-अचेतन समस्त सृष्टि के तत्त्व मात्र उस 'ब्रह्म' के प्रतिभासमात्र हैं । जिस प्रकार तिमिर रोगी को विशुद्ध आकाश भी चित्र - विचित्र रेखाओं से खचित दिखाई देता है, उसी प्रकार अविद्या या माया के कारण एक ही ब्रह्म अनेक प्रकार के देश काल और आकार के भेदों से चित्र-विचित्र प्रतिभासित होता है । वस्तुतः सृष्टि में था, है और रहेगा, वह सब बह्म है। . यही ब्रह्म संपूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का उसी प्रकार कारण है जिस प्रकार मकड़ी अपने जाल के प्रति । ३७ - सृष्टि में एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है, अन्य सब कुछ मिथ्या है - "बह्म सत्यं जगन्मिथ्या” – यह उपनिषद् की प्रसिद्ध उक्ति है, तो क्या आत्मश्रवण, मनन और ध्यान, जिसे वे आत्मशुद्धि का और अमृत की प्राप्ति का माध्यम मानते हैं, वह भी मिथ्या है या अविद्यात्मक है ? वेदान्ती इसका भी समाधान करते हैं और कहते ३३. कार्य कारण नानात्वं..... यदीप्यते । आ.मी. ६.६१. ३४. एकांतानन्यत्वे हि गुणा एव वा स्युः रा. वा. ५.२.९.४३९ ३४. यदि गुणा एव द्रव्याभावे निराधारत्वादभावः स्यात् । - ३५. सर्वं खल्विदं ब्रह्म । - छान्दोग्य उप. ३.१.१४ ३६. यथा विशुद्धमाकाशं तिमिराप्लुतो जनः संकीर्णमिव रेखामाशिश्चित्राभिरत्रिमिन्यते तथेदममलं ब्रह्म निर्विकारमविद्यया कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रपश्यति - बृहदा. भा. वा. ३.५.४३.४४ ३७. यथोर्णनाभः सृअते गृह्णीतेश्च - मुण्कोप. १.१.७ Jain Education International रा. वा. ५.२.९.४३९ ४८ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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